शनिवार, 9 जून 2018

= १२९ =


卐 सत्यराम सा 卐
*दादू पाका मन डोलै नहीं, निश्चल रहै समाइ ।*
*काचा मन दह दिशि फिरै, चंचल चहुँ दिशि जाइ ॥* 
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साभार ~ Hanuman Prasad Trivedi

जैसे सिनेमा का पर्दा एक स्वेत पटल होता है, चलचित्र तो वस्तुतः एक प्रकाश पुंज के रूप में दर्शक के पीछे से उस स्वेत पटल पर प्रक्षेपित किया जाता है, ठीक ऐसे ही एक दर्पण में स्वयं में तो कोई चित्र नहीं रहता, दर्पण के सामने जो भी आता है दर्पण उसे ही पुनः परावर्तित करके हमे दिखा देता है, दर्पण के समक्ष यदि कोई विकृत आकृति आती है तो दर्पण उसे वैसी विकृत अवस्था के रूप में ही दिखा देता है। ठीक ऐसे ही आत्मा में स्वयं में कुछ भी नहीं रहता आत्मा तो सदा एक नित्य, शुद्ध, मुक्त, निर्गुण, निराकार, और चेतन सत्ता मात्र है, जो शरीर में रह कर भी न कुछ करती है और न लिप्त ही होती है।

शरीरस्थोअपि कौन्तेय
न करोति न लिप्यते
(गीता १३/३१)
इसी लिए तो प्रायः संत महात्मा आत्मा के शुद्धिकरण के बजाय हमारे अन्तःकरण की शुद्धि के लिए ही हमें प्रेरित करते हैं। किसी का शुद्ध हुआ मन उसकी आत्मा को या तो शुद्ध प्रक्षेपण करेगा या एक निरुद्ध मन की अवस्था में कुछ नहीं करेगा।

*पातञ्जलि योग दर्शन का प्रथम सूत्र है,*
*"योगश्चित्तवृत्ति निरोध:"*
अर्थात मन के क्रिया कलापों का सर्वथा रुक जाना ऐसी स्थिति में जब मन उसे कुछ नहीं दिखता तो आत्मा अपने उपरोक्त निज स्वस्वरूप में अवस्थित हो जाती है, जो परमात्मा का अंश और उसका सजातीय होने के कारण परमात्म स्वरूप ही हो जाती है।

तोरा मन दर्पण कहलाये
भले बुरे सारे कर्मो को देखे और दिखाये। 
मन, इंद्रियों के माध्यम से पहले खुद कुछ देखता(विषयों को ग्रहण करता) और फिर उसे ही आत्मा को दिखाता कारण कि यह सिद्धांत है कि आत्मा सीधे कुछ नहीं देख सकती मन ही उस पर जो कुछ भी प्रक्षेपित करता वही आत्मा पर बनता।
वासुदेवः सर्वम् !!!

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