गुरुवार, 14 जून 2018

= विचार का अंग ३६(१७-२०) =

#daduji

卐 सत्यराम सा 卐
*दादू जब दिल मिली दयालु सौं, तब पलक न पड़दा कोइ ।*
*डाल मूल फल बीज में, सब मिल एकै होइ ॥*
================= 
**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
*विचार का अंग ३६*
.
समझ समावे शब्द में, परिखे१ प्राणि प्रवीन । 
जानर२ पैठे ज्योति में, रज्जब ह्वैं लै लीन ॥१७॥ 
चतुर साधक प्राणी ही शब्दों की परीक्षा१ करते हैं और समझकर उसके विचार में प्रविष्ट रहते हैं । इस प्रकार ब्रह्म-ज्योति को जानकर२ उसी में वृत्ति द्वारा मिले रहते हैं । 
.
रज्जब अकलि२ इनायत३ अकल१ की, प्राणी जो पावे । 
सो काया माया मांड सौ, गंज्या४ नहिं जावे ॥१८॥ 
यदि प्राणी को निरंजन राम१ की ज्ञान२रूप कृपा३ प्राप्त हो जाये, तो वह शरीराध्यास, माया की आसक्ति और ब्रह्माण्ड के भोगों के राग से कभी नष्ट४ नहीं हो सकता, ब्रह्म को प्राप्त होकर अमर हो जाता है । 
.
विचार बगहरी१ टालिये, तो टले कुबाइक२ चोट । 
रज्जब उबरे३ आतमा, बैठे अकलि४ की ओट ॥१९॥ 
विचार के द्वारा कुमति१ को दूर करोगे तो कुवचनों२ की चोट तुम पर नहीं पड़ेगी, इस प्रकार ज्ञान३ की ओट में स्थित रहने से जीवात्मा अनेक दु:खों से बच४ जाता है । 
.
पाषाण बाण वाइक बुरे, ज्ञान सु गैंडे ढाल । 
रज्जब बाँह विवेक मिल, चेतन चोटैं टाल ॥२०॥ 
बुरे वचन१, पत्थर तथा बाण के समान होते हैं, पत्थर और बाणों से देह को हाथ और गैंडे की ढाल मिलकर बचाते हैं, वैसे ही बुरे वचन की चोट सावधान२ साधक विवेक और ज्ञान के द्वारा बचाते हैं ।
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें