मंगलवार, 19 जून 2018

= १५० =


#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*भाई रे घर ही में घर पाया ।*
*सहज समाइ रह्यो ता मांही, सतगुरु खोज बताया ॥टेक॥*
*ता घर काज सबै फिर आया, आपै आप लखाया ।*
*खोल कपाट महल के दीन्हें, स्थिर सुस्थान दिखाया ॥१॥*
*भय औ भेद भरम सब भागा, साच सोई मन लाया ।*
*पिंड परे जहाँ जिव जावै, ता में सहज समाया ॥२॥*
*निश्चल सदा चलै नहिं कबहूँ , देख्या सब में सोई ।*
*ताही सौं मेरा मन लागा, और न दूजा कोई ॥३॥*
*आदि अनन्त सोई घर पाया, अब मन अनत न जाई ।*
*दादू एक रंगै रंग लागा, तामें रह्या समाई ॥४॥*
================================
साभार ~ Swami Amrit Gagan 
क्या परिवार, रिश्ते और समाज सब भ्रांतियां हैं .......?
जिसे कहते हम परिवार, जिसे कहते हम समाज–सब भ्रांतियां हैं; मन को भुलाने के उपाय हैं। और एक ही बात आदमी भुलाने की कोशिश करता है कि यहीं मेरा घर है, कहीं और नहीं। यही समझाने की कोशिश करता है - *‘‘यही मेरे प्रियजन हैं, यही मेरा सत्य है। यह देह, देह से जो दिखाई पड़ रहा है वह, यही संसार है; इसके पार और कुछ भी नहीं।’’ लेकिन टूट-टूट जाती है यह बात, खेल बनता नहीं। खिलौने खिलौने ही रहे जाते हैं, सत्य कभी बन नहीं पाते।* धोखा हम बहुत देते हैं, लेकिन धोखा कभी सफल नहीं हो पाता। और शुभ है कि धोखा सफल नहीं होता, काश, धोखा सफल हो जाता तो हम सदा को भटक जाते ! फिर तो बुद्धत्व का कोई उपाय न रह जाता। फिर तो समाधि की कोई संभावना न रह जाती।
.
लाख उपाय करके भी टूट जाते हैं, इसलिए बड़ी चिंता पैदा होती है, बड़ा संताप होता है। मानते हो पत्नी मेरी है, और जानते हो भीतर से कि मेरी हो कैसे सकेगी ? मानते हो बेटा मेरा है, लेकिन जानते हो किसी तल पर, गहराई में कि सब मेरा-तेरा सपना है। तो झुठला लेते हो, समझा लेते हो, सांत्वना कर लेते हो, लेकिन भीतर उबलती रहती है आग। और भीतर एक बात तीर की तरह चुभी ही रहती है कि न मुझे मेरा पता है, न मुझे औरों का पता है। इस अजनबी जगह घर बनाया कैसे जा सकता है ?
.
जिस व्यक्ति को यह बोध आने लगा कि यह जगह ही अजनबी है, यहां परिचय हो नहीं सकता, हम किसी और देश के वासी हैं; जैसे ही यह बोध जगने लगा और तुमने हिम्मत की, और तुमने यहां के भूल-भुलावे में अपने को भटकाने के उपाय छोड़ दिए, और तुम जागने लगे पार के प्रति; वह जो दूसरा किनारा है, वह जो बहुत दूर कुहासे में छिपा किनारा है, उसकी पुकार तुम्हें सुनाई पड़ने लगी, तो तुम्हारे जीवन में रूपांतरण शुरू हो जाता है। धर्म ऐसी ही क्रांति का नाम है।
.
किनारा मनमोहक तो है यह, सपनों जैसा सुंदर है। बड़े आकर्षण हैं यहां, अन्यथा इतने लोग भटकते न। अनंत लोग भटकते हैं, कुछ गहरी सम्मोहन की क्षमता है इस किनारे में। इतने-इतने लोग भटकते हैं, अकारण ही न भटकते होंगे, कुछ लुभाता होगा मन को, कुछ पकड़ लेता होगा।
.
कभी-कभार कोई एक अष्टावक्र होता है, कभी कोई जागता; अधिक लोग तो सोए-सोए सपना देखते रहते हैं। इन सपनों में जरूर कुछ नशा होगा, इतना तो तय है। और नशा गहरा होगा कि जगाने वाले आते हैं, जगाने की चेष्टा करते हैं, चले जाते हैं, और आदमी करवट बदल कर फिर अपनी नींद में खो जाता है। आदमी जगाने वालों को भी धोखा दे जाता है। आदमी जगाने वालों से भी नींद का नया इंतजाम कर लेता है; उनकी वाणी से भी शामक औषधियां बना लेता है।
.
बुद्ध जगाने आते हैं; तुम अपनी नींद में ही बुद्ध को सुन लेते हो। नींद में और-और सपनों में तुम बुद्ध की वाणी को विकृत कर लेते हो; तुम मनचाहे अर्थ निकाल लेते हो; तुम अपने भाव डाल देते हो। जो बुद्ध ने कहा था, वह तो सुन ही नहीं पाते; जो तुम सुनना चाहते थे, वही सुन लेते हो, फिर करवट लेकर तुम सो जाते हो। तो बुद्धत्व भी तुम्हारी नींद में ही डूब जाता है, तुम उसे भी डुबा लेते हो। लेकिन, कितने ही मनमोहक हों सपने, चिंता नहीं मिटती। कांटा चुभता जाता है, सालता है, पीड़ा घनी होती जाती है।
.
देखो लोगों के चेहरे, देखो लोगों के अंतरतम में - घाव ही घाव हैं ! खूब मलहम-पट्टी की है, लेकिन घाव मिटे? घावों के ऊपर फूल भी सजा लिये हैं, तो भी घाव नहीं मिटे। फूल रख लेने से घावों पर, घाव मिटते भी नहीं। अपने में ही देखो। सब उपाय कर के तुमने देखे हैं। जो तुम कर सकते थे, कर लिया है। हार-हार गए हो बार-बार फिर भी एक जाग नहीं आती कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि जो हम कर रहे हैं वह हो ही नहीं सकता।
.
अपरिचित, अपरिचित ही रहेगा। अगर परिचय बनाना हो तो अपने से बना लो; और कोई परिचय संभव नहीं है, दूसरे से परिचय हो ही नहीं सकता। एक ही परिचय संभव है - अपने से। क्योंकि दूसरे के भीतर तुम जाओगे कैसे ? और अभी तो तुम अपने भीतर भी नहीं गए। अभी तो तुमने भीतर जाने की कला भी नहीं सीखी। अभी तो तुम अपने भी अंतरतम की सीढ़ियां नहीं उतरे। अभी तो तुमने अपने कुएं में ही नहीं झांका, अपने ही जलस्रोत में नहीं डूबे, तुमने अपने की केंद्र को नहीं खोजा, तो दूसरे को तो तुम देखोगे कैसे ? दूसरे को तुम उतना ही देख पाओगे जितना तुम अपने को देखते हो।
.
अगर तुमने माना कि तुम शरीर हो तो दूसरे तुम्हें शरीर से ज्यादा नहीं मालूम पड़ेंगे। अगर तुमने माना कि तुम मन हो, तो दूसरे तुम्हें मन से ज्यादा नहीं मालूम पड़ेंगे। यदि तुमने कभी जाना कि तुम आत्मा हो, तो ही तुम्हें दूसरे में भी आत्मा की किरण का आभास होगा।
.
हम दूसरे में उतना ही देख सकते हैं, उसी सीमा तक, जितना हमने स्वयं में देख लिया है। हम दूसरे की किताब तभी पढ़ सकते हैं जब हमने अपनी किताब पढ़ ली हो। कम से कम भीतर की वर्णमाला तो पढ़ो भीतर के शास्त्र से तो परिचित होओ तो ही तुम दूसरे से भी शायद परिचित हो जाओ। और मजा ऐसा है कि जिसने अपने को जाना, उसने पाया कि दूसरा है ही नहीं। अपने को जानते ही पता चला कि बस एक है, वही बहुत रूपों में प्रगट हुआ है। जिसने अपने को पहचाना उसे पता चला कि परिधि हमारी अलग-अलग, केंद्र हमारा एक है। जैसे ही हम भीतर जाते हैं, वैसे ही हम एक होने लगते हैं। 
.
जैसे ही हम बाहर की तरफ आते हैं, वैसे ही अनेक होने लगते हैं। अनेक का अर्थ है : बाहर की यात्रा। एक का अर्थ है : अंतर्यात्रा। तो जो दूसरे को जानने की चेष्टा करेगा, दूसरे से परिचित होना चाहेगा, पुरुष स्त्री से परिचित होना चाहता है, स्त्री पुरुष से परिचित होना चाहती है। हम मित्र बनाना चाहते हैं, हम परिवार बनाना चाहते हैं। हम चाहते हैं अकेले न हों। अकेले होने में कितना भय लगता है ! कैसी कठिन हो जाती हैं वे घड़ियां जब हम अकेले होते हैं। कैसी कठिन और दूभर... झेलना मुश्किल ! क्षण-क्षण ऐसे कटता है जैसे वर्ष कटते हों। समय बड़ा लंबा हो जाता है। संताप बहुत सघन हो जाता है, समय बहुत लंबा हो जाता है।
.
तो हम दूसरे से परिचय बनाना चाहते हैं ताकि यह अकेलापन मिटे। हम दूसरे से परिवार बनाना चाहते हैं ताकि यह अजनबीपन मिटे, किसी तरह टूटे यह अजनबीपन, लगे कि यह हमारा घर है !
.
सांसारिक व्यक्ति मैं उसी को कहता हूं जो इस संसार में अपना घर बना रहा है। हमारा शब्द बड़ा प्यारा है। हम सांसारिक को ‘गृहस्थ’ कहते हैं। लेकिन तुमने उसका ऊपरी अर्थ ही सुना है। तुमने इतना ही जाना है कि जो घर में रहता है, वह संसारी है। नहीं, घर में तो संन्यासी भी रहते हैं। छप्पर तो उन्हें भी चाहिए पड़ेगा। उस घर को चाहे आश्रम कहो, चाहे उस घर को मंदिर कहो, चाहे स्थानक कहो, मस्जिद कहो, इससे कुछ फर्क पड़ता नहीं। घर तो उन्हें भी चाहिए होगा। नहीं, घर का भेद नहीं है, भेद कहीं गहरे में होगा।
.
संसारी मैं उसको कहता हूं, जो इस संसार में घर बना रहा है; जो सोचता है, यहां घर बन जाएगा; जो सोचता है कि हम यहां के वासी हो जाएंगे, हम किसी तरह उपाय कर लेंगे। और संन्यासी वही है जिसे यह बात समझ में आ गई है : यहां घर बनता ही नहीं। जैसे दो और दो पांच नहीं होते ऐसे उसे बात समझ में आ गई कि यहां घर बनता ही नहीं। तुम बनाओ, गिर-गिर जाता है। यहां जितने घर बनाओ, सभी ताश के पत्तों के घर सिद्ध होते हैं। यहां तुम बनाओ कितने ही घर, सब जैसे रेत में बच्चे घर बनाते हैं, ऐसे सिद्ध होते हैं; हवा का झोंका आया नहीं कि गए। ऐसे मौत का झोंका आता है, सब विसर्जित हो जाता है। यहां घर कोई बना नहीं पाया।
~ ओशो

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें