सोमवार, 4 जून 2018

= माया मध्य मुक्ति का अंग ३५(६५-६८) =

#daduji

卐 सत्यराम सा 卐
*दादू माया चेरी संत की, दासी उस दरबार ।*
*ठकुराणी सब जगत की, तीनों लोक मंझार ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
*माया मध्य मुक्ति का अंग ३५*
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अरिल - 
बेदाने की बेलि फूल फल ह्वैं सदा । 
त्यों निरिहाई१ नर पास सकल पाया२ मुदा३ ॥ 
बीज४ गये गुरु ज्ञान न सो ठाहर रही । 
परि हां रज्जब रहते ऋद्धि सिद्धि में यू सही ॥६५॥ 
बेदानी की बेल में सदा ही फूल फल रहते हैं, वैसे ही निरीह१(इच्छा रहित ) ज्ञानी पुरुष के पास सभी सुख रहते हैं । इन दोनों का सदा आनन्दित रहने का अभिप्राय३ हमने विचार द्वारा पा लिया२ अर्थात जान लिया है यदि बेदाने की बेली का मूल४ नष्ट हो जाय तो वह उस पूर्व वाली फूल-फल युक्त स्थिति में रहेगी, वैसे ही संत में गुरु का ज्ञान न रहे तो वह भी ऋद्धि-सिद्धि में रहकर मुक्त नहीं रह सकता, यह यथार्थ है । गुरु ज्ञान होने से ही माया में रहकर मुक्त रहते हैं । 
रज्जब ऋद्धि हिं दुहाग दे, दिया भक्ति हिं सुहाग । 
उभय एक घर में रहैं, अभगा सहित सभाग ॥६६॥ 
एक पुरुष के दो नारी हो उनमें एक दुहागिनी और दूसरी सुहागिनी, वे दोनों एक घर में रहती है किन्तु एक दुर्भाग्यवती है और दूसरी महा भाग्यवती है, वैसे ही संतों के माया और भक्ति दोनों ही रहती है किन्तु माया को सन्तों ने दुहाग दे दिया और भक्ति को सुहाग दिया है इस कारण माया से मुक्त रहते हैं । 
रज्जब सतियहुं१ जती२ सु पोषिये, नर निरखो निर्वाह । 
फूटौं सारे ऊबरै३, अवलोकहु सु अवाह४ ॥६७॥ 
कुम्हार के आँवा४ को देखो, फूटे बर्तनों के आश्रय से ही साबत बर्तन बचते३ हैं, वैसे ही हे नरों ! सन्तों के निर्वह की ओर देखो, सद् गृहस्थों१ के द्वारा ही संन्यासियों२ का पोषण होता है । 
ररा अक्षर मात्र हुं भरया, ममे मात्रा नाँहिं । 
रज्जब अज्जब राम लगि, वंदनीक१ जग माँहिं ॥६८॥ 
राम के बीज मंत्र "राँ" में रकार तो आकार ही मात्र युक्त है और अर्ध चन्द्रकार अनुस्वार रूप मकार मात्रा रहित है किन्तु राम के बीज मंत्र में लग जाने से दोनों ही जगत् में पूजनीय१ हैं, वैसे ही सन्त माया से युक्त हो वा रहित हो राम के स्वरूप में संलग्न होने से संसार में पूजनीय हैं ।
(क्रमशः)

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