बुधवार, 6 जून 2018

= १२५ =



卐 सत्यराम सा 卐
*साध सदा संयम रहै, मैला कदे न होइ ।*
*शून्य सरोवर हंसला, दादू विरला कोइ ॥* 
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com

जो ज्ञानी स्वभाव से व्यवहार में भी सामान्य जन की तरह व्यवहार नहीं करता और महासरोवर की तरह क्लेश रहित है, वही शोभता है।
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अज्ञानी सदा लड़ता ही रहता हैं, उलझता ही रहता। कोई बाहर न हो उलझने को तो भीतर उलझन बना लेता है, परन्तु बिना उलझे नहीं रह सकता। उलझता ही रहता है, झगड़ता ही रहता हैं। झगड़ा उसकी जीवन-शैली है। कोई बाहर न मिले तो वह भीतर निर्मित कर लेता है। कोई दूसरा न मिले लड़ने को तो अपने से लड़ने लगता है। परन्तु झगड़ा उसकी प्रकृति है। और अज्ञानी कहीं भी जाए, कुछ भी करे, कुछ भेद नहीं पड़ता। इससे वास्तविक क्रांति, वास्तविक रूपांतरण स्थितियों का नहीं है, बोध का है। 
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अज्ञान से मुक्त होना है, संसार से नहीं। अज्ञान से जो मुक्त हुआ, संसार से मुक्त हुआ। मूर्च्छा टूटी, सब टूटा। सब सपने गए - व्यक्तिगत, सामूहिक, सब सपने गए। अज्ञान बचा, हम कहीं भी जाएँ, मथुरा कि काशी, चारों धाम कि कैलाश, कोई भेद नहीं पड़ता। ध्यान रखना स्वभाव से; योजना से नहीं, आचरण से नहीं, स्वभाव से। चेष्टा में नहीं, प्रयास से नहीं, साधना से नहीं, स्वभाव से, स्वभावात्। जहां समझ आ गई यहां स्वभाव से क्रियाएं शुरू होती हैं। 
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एक व्यक्ति शांत होता है चेष्टा से। गौर से देखोगे, भीतर उबलती अशांति, बाहर-बाहर थोपकर, लीप-पोत कर उसने अपने को समझा लिया, ऊपर का थोपा हुआ ज्यादा काम नहीं आता। ज्ञानी की यही खूबी है कि वह स्वभावात, स्वभाव से, स्वभाव का अर्थ होता है, जाग्रत होकर जिसने स्वयं को जाना, पहचाना, जिसकी अंतर्प्रज्ञा प्रबुद्ध हुई, जिसके भीतर का दीया जला, जो अब अपने स्वभाव को पहचान लिया। अब इससे अन्यथा होने का उपाय न रहा। अब हम उसे कैसी भी स्थिति में देखेंगे, हम उसे हमेशा अपने स्वभाव में थिर पाएंगे।
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जो जानी स्वभाव से व्यवहार में भी सामान्य जन की तरह नहीं व्यवहार करता और महासरोवर की तरह क्लेशरहित है, वही शोभता है। इस श्लोक में संस्कृत में जो शब्द है वह है, लोकवत। वह 'सामान्य जन' से ज्यादा श्रेष्ठ है। लोकवत का अर्थ होता है भीड़ की भांति। जो भीड़ की तरह व्यवहार नहीं करता। भीड़ का व्यवहार क्या है? भीड़ का व्यवहार धोखा है। हैं कुछ, दिखाते कुछ। 
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जो साधारण स्थितियों में भी भीड़ का आचरण, अंधानुकरण नहीं करता, जिसके होने में एक निजता है, जिसके होने में अपने स्वभाव की एक धारा है, स्वच्छंदता है, जिसका स्वयं का गीत है, जो हमारे अनुसार अपने को नहीं डालता। स्वाभाविक होने का तो अर्थ हुआ क्रांतिकारी। स्वभाव तो सदा विद्रोही है। स्वभाव का तो अर्थ हुआ कि जैसी मौज होगी, जैसा भीतर का भाव होगा, जैसी लहर होगी। स्वाभाविक व्यक्ति तो लहरी होता है। उसके ऊपर कोई आचरण के बंधन और मर्यादाएं नहीं होतीं।
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और जैसा महासागर क्षोभरहित है ऐसा ही ज्ञानी है। क्या मतलब हुआ इसका? महासागर तो सदा ही लहरों से भरा है। अष्टावक्र यह कह रहे हैं कि लहरों से खाली होकर जो क्षोभ रहित हो जाना है, वह भी कोई क्षोभरहितता है? लहरें उठ रही हैं और फिर भी शाति अखंडित है। संसार में खड़े हैं और संन्यास अखंडित है। जल में कमलवत। सागर लहरों से भरा है, लेकिन क्षुब्ध थोड़े ही है, जरा भी क्षुब्ध नहीं है, परम अपूर्व शांति में है। हमे संभवतय लगता हो किनारे पर खड़े होकर कि क्षुब्ध है। वह हमारी गलती है। वह सागर का वक्तव्य नहीं है, वह हमारी व्याख्या है। 
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*सागर तो परम शांत है। ये लहरें उसकी शांति की ही लहरें हैं। इन लहरों में भी शांत है। इन लहरों के पीछे भी अपूर्व अखंड गहराई है। ये लहरें उसकी शांति के विपरीत नहीं हैं। इन लहरों का शांति में समन्वय है। जीवन वहीं गहरा होता है जहां विरोधी को भी आत्मसात कर लेता है। जीवन की महत्ता, जीवन का सौरभ, जीवन की समृद्धि विरोध में है। जहां विरोधों की मौजूदगी में संगीत पैदा होता है, बस वहीं।*
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साधना के पथ पर एक बात याद रहे कि हमें विपरीत से नहीं भागना, विपरीत का अतिक्रमण करना। भगोड़े नहीं बनना। सागर यदि लहरों से भाग जाए तो क्या होगा? जा सकता है भाग कर हिमालय। जम जाए बर्फ की तरह, फिर लहरें नहीं उठतीं। बर्फ की तरह जमा हुआ हमारा संन्यास अब तक रहा है। बर्फ की तरह जमा हुआ, मुर्दा। कोई गति नहीं, कोई तरंग नहीं, कोई संगीत नहीं। ठंडा। कोई ऊष्मा नहीं, कोई प्रेम नहीं। निर्जीव। *महासागर की तरह हमारा संन्यास होना चाहिए, नाचता हुआ, आकाश को छूने की अभीप्सा से भरा। उत्तुंग लहरोंवाला और फिर भी शांत। इसलिए यह अदभुत वचन है।*

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