शनिवार, 23 जून 2018

= पृथ्वी पुस्तक का अंग ३७(९-१२) =

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卐 सत्यराम सा 卐
*काया नगर निधान है, माँही कौतिक होइ ।*
*दादू सद्गुरु संग ले, भूल पड़े जनि कोइ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
*पृथ्वी पुस्तक का अंग ३७*
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कारण पंचों तत्त्व है, कारज चारों वेद । 
जन रज्जब जग जाणि१ सो, जो पावे यहु भेद ॥९॥ 
आकाशादि पंच तत्त्व कारण हैं और चारों वेद कार्य हैं, जो यह रहस्य जान पाता है, वही जगत में ज्ञानी१ है । 
वपु में बारह स्कंध वेद, प्राण पवन मधि पाया भेद । 
पंच पचीस सिपारे शाह१, काया ऐन२ कला मुल्लाह ॥१०॥ 
शरीर में ही भक्ति रूप बारह स्कंधों वाला भागवत् है और ज्ञान रूप वेद है, प्राणी ने प्राण वायु को ब्रह्मरंध में रोक के यह रहस्य प्राप्त किया है । वैसे ही शरीर में पंच ज्ञानेद्रिय और पच्चीस प्रकृति सिपारे(कुरान का हर एक तीसवां हिस्सा अर्थात ३० आयत) हैं । काया में ईश्वर१ की इस कला को ठीक२ समझता है वही मुल्ला है । 
ऋग रुचि चलै यजुर चखि जावै, साम श्रवण सुन भाषा भेद । 
उदर अथर्वण सब कोउ जाने, रज्जब वपु सु चतुर्वेद ॥११॥ 
किसी पर रुचि चलना ही ऋग्वेद है, नेत्रों से देखना ही यजुर्वेद है, श्रवणों से भाषा भेद सुनना ही सामवेद है, पेट का अनुकूल प्रतिकूल ज्ञान ही अथर्व वेद है, इस प्रकार शरीर में चार प्रकार के ज्ञान ही चार वेद हैं । 
अठार भार औषधि सभी, वेत्ता वैद्य लहंत । 
त्यों पृथ्वी पुस्तक मई, मुखि मुखि वदति महन्त ॥१२॥ 
अठारह भार वनौषधियाँ सभी गुणों से युक्त हैं किन्तु ज्ञानी वैद्य ही उनके गुणों को जान पाते हैं, अन्य नहीं, वैसे ही मुख्य मुख्य महान् संत ही पृथ्वी पुस्तक रूप है यह रहस्य जानकर पृथ्वी को पुस्तक रूप कहते हैं, अन्य नहीं ।
(क्रमशः)

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