#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*दादू सैन्धव फटिक पाषाण का, ऊपर एकै रंग ।*
*पानी मांहैं देखिये, न्यारा न्यारा अंग ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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*माया मध्य मुक्ति का अंग ३५*
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अतीत१ अडवे२ सारिखा, खपता३ खेत समान ।
रज्जब विझुका४ बन रहे, नाँहिं खैंचातान ॥७७॥
संत१ तो खेती की रक्षार्थ बनाये हुये मानव पुतला२ के समान है और माया के लिये पचने३ वाले खेती के समान है, पुतला और खेती दोनों खेत में हैं किन्तु खेती पशुओं द्वारा नष्ट होती है अडवा नहीं । साधक को उस हिरण विझुका(मृगों को भगाने४ वाले) के समान बने रहना चाहिये । उस समत्त्व रूप स्थिति में सांसारिक खैंचातान नहीं रहती ।
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पक्षी उडहिं आकाश को, आभे१ अवनि मिलाँहिं ।
रज्जब रहै न सो तहां, बहुरि घरे२ घर जाहिं ॥७८॥
पक्षी आकाश में उड़ते हैं और बादल१ पृथ्वी के पर्वतों से आ मिलते हैं किन्तु वे दोनों ही वहां नहीं रहते, पक्षी पृथ्वी पर अपने आलय२ में चले जाते हैं और बादल अपने घर आकाश में चले जाते हैं, वैसे ही संत माया में आते हैं और असंत माला तिलकादि भेष द्वारा ईश्वर की ओर आते हैं किन्तु संत माया में नहीं रहते, उनकी वृत्ति ब्रह्म में रहती है और असंत की वृत्ति ईश्वर चिन्तन में नहीं रहती माया के चिन्तन में रहती है ।
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रज्जब सत्य शब्द नर१ नग२ सही, रहती सु मादा३ तास ।
कंत४ कलत्र५ बिन क्यों रहै, समय सुन्दरी पास ॥७९॥
सत्य ब्रह्म के स्वरूप बोधक महावाक्य रूप शब्दों से युक्त संत नर हीरे के समान हैं और ब्रह्मनिष्ठा२ ही हीरी३ के समान है । जैसे हीरा१ रूपी पति४ उसकी हीरी रूप नारी५ के बिना नहीं रहता, समय पर हीरी के पास चला जाता है, वैसे ही यथार्थ ज्ञानमय महावाक्य रूप शब्दों का मनन करने वाला संत ब्रह्मनिष्ठा बिना नहीं रहता समय पर ब्रह्मनिष्ठा को अवश्य प्राप्त होता है ।
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जरा जीव को ले चले, जहमत आवे जाय ।
आरम्भ गृह वैराग्य के, नर देखो निरताय ॥८०॥
हे नरो ! विचार करके देखो, चाहे मनुष्य गृह के आरंभ में हो अर्थात गृहस्थ के कार्य करता हो वा वैराग्य के द्वारा उनसे विरक्त होकर साधन करता हो, दोनों की ही शरीरों में रोग१ आदि दु:ख तो आते हैं और चले जाते हैं किन्तु वृद्धावस्था आती है तब वो प्राणी के शरीर को मृत्यु के मुख में ही जाती है, भाव यह है - शरीर के रोग मृत्यु आदि माया मध्य मुक्त वा बद्ध दोनों को ही होते हैं ।
(क्रमशः)
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