#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*"सुन्दर" नफो न वस्तु में, नफो भाव में होय ।*
*भाव बिहूना प्रानियाँ, बैठा पूंजी खोय ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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*माया मध्य मुक्ति का अंग ३५*
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एक हु को खाँसी भई, एक हु को भया खैन१ ।
वह दिन दहुं२ चहुं३ जायगी, वह पच४ मरना ऐन५ ॥८१॥
एक को तो खाँसी का रोग हुआ है और एक को क्षय१ रोग हुआ है । वह खाँसी तो दो२ चार३ दिन में चली जायगी किन्तु क्षय रोग तो इलाज के लिये पूरा५ परिश्रम४ करके भी अंत में मरेगा ही, वैसे ही संत को तो माया लगी है, सो छुट जायेगी किन्तु असंत तो माया में ही पच-पच कर मरेगा ।
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रज्जब चंचलता द्वै भांति की, उदधि१ विवेक ।
तब निकले चौदह रतन, अब निकसे नहिं एक ॥८२॥
चंचलता दो प्रकार की होती है, उसका उदाहरण समुद्र है । समुद्र मंथन के समय की चंचलता से तो समुद्र२ से चौदह रत्न निकले थे किन्तु अब की चंचलता से एक भी नहीं निकलता, वैसे ही ज्ञानी की विवेक पूर्वक चंचलता से तो भक्ति ज्ञानादि अनेक रत्न निकलते हैं किन्तु अज्ञानी की चंचलता से एक भी अच्छी बात नहीं निकलती ।
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एक साँच में झूठ है, एक झूठ में साँच ।
रज्जब लीजे माँहिंल, तज मुँहडै१ की बाच ॥८३॥
एक ज्ञानी संत सत्य ब्रह्म में संसार को मिथ्या कह रहे हैं दुसरे भक्त मिथ्या संसार में ब्रह्म को सत्य कह रहे हैं, उन दोनों के मुख१ से बोली जाने वाणी के भेद को छोड़कर जो उनके मन के भीतर ब्रह्म की सत्यता है, उसी को धारण करना चाहिये अर्थात ब्रह्म परायण होना चाहिये ।
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एक रंग में रोस है, एक रोस में रंग ।
रज्जब समझो भावना, आतम भंग अभंग ॥८४॥
यदि भावना अच्छी न हो तो प्रेम से बोलने वाले के वचन से भी क्रोध आता है, और भावना अच्छी हो तो क्रोधपूर्वक बोलने वाले के वचन से भी प्रेम होता है, वैसे ही भेद भावना द्वारा आत्मा मरने वाला भासता है और अभेद भावना द्वारा अविनाशी ब्रह्म रूप भासता है । ज्ञानी आत्मा को अभेद भावना द्वारा अविनाशी ब्रह्म समझता है, इसी से माया में रहते हुए भी मुक्त रहता है ॥ इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित माया मध्य मुक्ति का अंग ३५ समाप्त ॥ सा. १२१४ ॥
(क्रमशः)
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