गुरुवार, 14 जून 2018

= १३९ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*सतगुरु मिलै तो पाइये, भक्ति मुक्ति भंडार ।*
*दादू सहजैं देखिए, साहिब का दीदार ॥* 
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साभार ~ स्वामी सौमित्राचार्य
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“प्रपत्ति”
‘नमामि भक्तमाल को’~श्री विनोदी जी
श्री विनोदी जी महान भगवद्भक्त थे. ये भी श्री स्वामी अग्रदेवाचार्य जी के शिष्य थे. एक बार ये मानसी-पूजा कर रहे थे. पास में एक भोला-भाला शिष्य बैठा था. काफ़ी देर बाद जब श्री विनोदी जी ने आँखें खोलीं तब उसने पूछा कि गुरुदेव इतनी देर से आँख बंद किए क्या कर रहे थे ? इन्होंने उत्तर दिया कि ये भगवान श्री सीतारामजी की मानसी-पूजा कर रहे थे.
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यह सुनकर शिष्य ने बड़ी ही सरलता से कहा कि फिर गुरु महाराज चरणामृत-प्रसाद तो दें जो पूजन के बाद मिलता है. श्री गुरु महाराज ने कहा कि बात तो ठीक है, चरणामृत तो मिलना ही चाहिए. ऐसा कहते हुए इन्होंने पास ही रखे हुए जल-पात्र से एक चुल्लू जल दे दिया. जल पीते ही उसके हृदय में भगवान श्री सीताराम जी का दिव्य प्रकाश छा गया. उसे सर्वत्र श्री सीताराम जी के दर्शन होने लगे.
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सबसे बड़ी बात है – सरल हो जाना, भोला-भाला हो जाना. सरल को सहज ही भगवत्प्राप्ति हो जाती है. श्री गुरु महाराज के सामने बिलकुल भोला-भाला होकर ही जाना चाहिए. भोला-भाला होने का मतलब है अहंकार शून्य होना. जब अहंकार होता है तब हम समझते हैं कि हमें सब कुछ पता है, हम सब जानते हैं. तब हम भरे हुए होते हैं – खाली होते ही नहीं हैं तो कुछ प्राप्त भी नहीं कर पाते हैं.
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उस शिष्य की जगह अगर हम होते तो पहले ही सोच लेते कि गुरु महाराज ध्यान में हैं. उनकी अवस्था के बारे में बिलकुल भी जानकारी न होने के बावजूद भी यही दिखाते कि हमें सब पता है(दिखाते क्या, समझते ही यही कि सब पता है). ज्यादा देर होती तो उठ कर चले भी जाते कि हमको और भी काम करने हैं. अगर रुकते और प्रश्न भी करते तो यही करते कि मानसी-पूजा कैसे करी जाती है ? पर धन्य है वो शिष्य जिसने पूजन विधि नहीं, सीधे प्रसाद ही मांग लिया. हमारे अन्दर कर्तापन का इतना अभिमान है कि ‘कृपा’ की तरफ विचार ही नहीं जाता है. अब प्रभु और गुरुमहाराज ही ऐसी कृपा कर दें कि हम सरल हो जाएँ.
“स्वामी सौमित्राचार्य”

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