बुधवार, 20 जून 2018

= विचार का अंग ३६(४१-४५) =

#daduji

卐 सत्यराम सा 卐
*मति बुद्धि विवेक विचार बिन, माणस पशु समान ।*
*समझायां समझै नहीं, दादू परम गियान ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
*विचार का अंग ३६*
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पंखी अंखि पावे नहीं, तो जीवन पद नास । 
रज्जब बिना विवेक यूं, ता की कैसी आस ॥४१॥ 
पक्षी को आँखे नहीं प्राप्त हो तो उसका जीवन नष्ट प्राय: ही है, वैसे ही मानव को विवेक - विचार - नेत्र नहीं मिलते तब तक नित्य जीवन ब्रह्म पद के प्राप्त होने की क्या आशा है । 
तन मन सूने समझ बिन, सांई साधु न एक । 
रज्जब उजड़ अकलि बिना, वस्ती नहीं विवेक ॥४२॥ 
जिसके मन में न प्रभु का चिन्तन और न तन से संत सेवा होती है, ऐसे प्राणी के तन-मन विचार बिना खाली ही रहते हैं, विचार बिना का हृदय उजाड़ है, उसमें विवेक रूप बसती नहीं रहती है । 
शक्ति१ रूप संसार सब, समझ्या कोई एक । 
रज्जब भूत२ विभूति३ में, विरलों भिन्न विवेक ॥४३॥ 
यह सब संसार माया१ रूप ही है, सब प्राणी२ माया३ में ही आसक्त हैं, कोई विरले मनुष्य का ही विवेक द्वारा माया से भिन्न विचार होता है । उनमें भी अपने स्वरूप को यथार्थ रूप समझने वाला कोई एक ही होता है । 
जन रज्जब मन शून्य को, अज्ञान सू आभों१ घेर । 
तो आतम आदित्य सह, वपु ब्रह्माण्ड अंधेर ॥४४॥ 
आकाश को बादल१ धेर लेते हैं तब सूर्य भी नहीं दिखता और सभी ब्रह्माण्ड में अधेरा हो जाता है, वैसे ही मन को अज्ञान धेर लेता है तब आत्मा साक्षात्कार भी नहीं होता और शरीर में अविचार रूप अंधेरा ही रहता है । 
तहां औषधी अकलि१ है, समझ१ समीर२ सु हेर३ । 
मनसा वाचा कर्मना, और न छूटन फेर ॥४५ ॥ 
देख४, बादलों से आच्छादिक आकाश को साफ करने के लिये वायु३ ही उचित उपाय है, वायु सभी बादलों को छिन्न-भिन्न कर देता है, वैसे ही मन का अज्ञान रूप रोग दूर करने के लिये बुद्धि१ से आत्म-विचार२ करना रूप ही औषधि है, यदि वह नहीं है तो फिर छूटने का अन्य उपाय कोई भी नहीं है ।
इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित विचार का अंग ३६ समाप्त ॥सा. १२५९॥
(क्रमशः)

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