मंगलवार, 19 जून 2018

= विचार का अंग ३६(३७-४०) =

#daduji


卐 सत्यराम सा 卐
*दादू मन हंसा मोती चुणै, कंकर दिया डार ।*
*सतगुरु कह समझाइया, पाया भेद विचार ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
*विचार का अंग ३६*
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सबै दिशावर उठ गया, जबै दृष्टि उठ जाँहिं । 
ज्यों रज्जब पलकों मिल्यों, दिन दीसै कुछ नाँहिं ॥३७॥
नेत्र की दोनों पलक मिल जाती है तब दिन में भी कुछ नहीं दिखता, वैसे ही जब जब भेद दृष्टि उठ जाती है तब सभी देशान्तर आदि भेद उठ जाते हैं, संपूर्ण विश्व अपना स्वरूप ब्रह्म रूप ही भासता है । 
भला न आवै भलै हिं तज, बुरा बुरों बस जात । 
जन रज्जब जग जीव सौं, आय कहै क्यों बात ॥३८॥ 
भला मानव भले लोकों का छोड़कर नहीं आता और बुरा मानव बुरे लोकों में बसा रहता है, ऐसी दशा में जगत के जीवों के पास आकर उन्हें भलाई तथा बुराई के परिणाम की बात कोई क्यों कहेगा ? 
साधु चोर भाई उभाय, छाड़ एक धर जाँहिं । 
रज्जब सख दुख वश पङैं, सो फिर आवें नाँहिं ॥३९॥ 
साधु और चोर दो भाई हों, दोनों एक दिन ही घर छोड़कर चले जावें, फिर साधुता के सुख भोग के लिये साधु और चोरी के दंड रूप दु:ख भोगने के लिये राजपुरूषों के वश पड़ा चोर घर पर कहां आते हैं, ऐसा ही विचार परलोक में जाने वाले भलों तथा बुरों का है । 
अज्ञान उदर माँहिं पड्या, लहै न ज्ञान निकास । 
रज्जब अरभख१ अवधि की, कहु क्या कीजे आस ॥४०॥ 
अज्ञान रूप पेट में पड़ा हुआ अज्ञानी रूप बच्चा१ जब तक आत्मज्ञान रूप निकलने के मार्ग को न प्राप्त करे तब तक कहो ? उसके निकलने के समय की अवधि की क्या आशा करैं ।
(क्रमशः)

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