#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*साधु बरसैं राम रस, अमृत वाणी आइ ।*
*दादू दर्शन देखतां, त्रिविध ताप तन जाइ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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*सद्गति सेझे का अंग ३८*
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वारि१ बुद्धि माँही उदय, सफरी२ शब्द समान ।
इहिं प्रकार वाणी विविध, समझैं साधु सुजान ॥९॥
जैसे जल१ में नाना प्रकार की मच्छियाँ२ उत्पन्न होती हैं, वैसे ही बुद्धि से नाना प्रकार के शब्द उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार विविध भांति की वाणी उत्पन्न होती है, उसे बुद्धिमान संत ही समझते हैं ।
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पर्वत प्राणि हुं सौं चलैं, सलिता१ शास्त्र सु सब्ब ।
अंबु२ अकलि४ अद्यापियों, यूं३ ही रज्जब अब्ब ॥१०॥
आज तक सभी नदियां१ पर्वतों के जल२ से भरकर चली हैं और अब भी पूर्ववत३ ही पर्वतों के जल से परिपूर्ण होकर चल रही हैं, वैसे ही आज तक सभी शास्त्र बुद्धिमान् प्राणियों की बुद्धि४ से ही बने हैं और अब भी पूर्ववत ही बुद्धिमानों की बुद्धि से ही शास्त्र बनते हैं ।
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शैल१ हुं सौं सलिता२ चली, गुरु पीर३ हु सौं प्रान ।
उदधि४ अविगत५ को मिलहिं, दशा६ दरशन निदान७ ॥११॥
पर्वतों१ से चलने वाली नदियों२ में जल पड़कर समुद्र४ में मिल जाता है, वैसे ही सिद्ध३ संतों से प्रकट होने वाले ज्ञान में मिलकर प्राणी मन इन्द्रियों के अविषय ब्रह्म५ में मिल जाते हैं । अत: संतों के ज्ञान में स्थित होना रूप अवस्था६ ही ब्रह्म दर्शन की हेतु७ है ।
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बाइक१ बादल ज्यों उडहिं, आतम२ शून्य३ मंझार ।
वेद कुरान घटा मिलहिं, अर्थ सु अंबु४ अपार ॥१२॥
आकाश३ में बादल उड़ते हैं, उनके मिलने से घटा बन आती है, उस घटा में अपार जल४ होता है, वैसे ही संतों की बुद्धि२ में वचन१ उड़ते हैं, उनके मिलने से वेद तथा कुरान बन जाते हैं, उसमें अपार सुन्दर अर्थ रहता है ।
(क्रमशः)
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