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卐 सत्यराम सा 卐
*ब्रह्म गाय त्रि लोक में, साधु अस्तन पान ।**मुख मारग अमृत झरै, कत ढूँढै दादू आन ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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*सद्गति सेझे का अंग ३८*
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आशिक शैर समुद्र है, मश्क कुरान कतेब ।
कुल काजी सक्के भये, रज्जब समझ हसेब ॥५॥
भगवत् प्रेमी संतों का ज्ञान समुद्र है, कुरान की किताब मश्क के समान है, और सभी काजी भिस्ती के समान हैं, जैसे भिस्ती समुद्र का जल मश्क से सबके पहुंचाता है, वैसे ही संतों के ज्ञान को कुरान द्वारा सब काजी सबके पहुंचाते हैं ।
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साधु सागर शब्द के, बुद्धि विवेक की खानि ।
जन रज्जब वाणी विविध, सब संतन सौं जानि ॥६॥
संत शब्दों का समुद्र है, उनकी बुद्धि विवेक-खानि है, अत: नाना प्रकार की वाणियों के सभी रहस्यों को संतों से समझो ।
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साधु भूमि निज ज्ञान की, पुराण अठारह भार ।
रज्जब ज्यों थी त्यों कही, ता में फेर१ न सार ॥७॥
संत स्वस्वरूप१ आत्म-ज्ञान की भूमि है, भुमि पर जैसे अठारह भार वनस्पति है, वैसे ही संतों से अठारण पुराण प्रकट हुये हैं, हमने यह जैसी बात ही कही है, इसमें परिवर्तन की कोई बात नहीं है, यह सार रूप बात है ।
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चित चेतन१ की बात है, चारों वेद कुरान ।
जन रज्जब सो मानिये, तजिये तिन का थान ॥८॥
संतों के सावधान१ चित्त की बातें वेद तथा कुरान हैं, वे अवश्य माननी चाहिये, किन्तु उन सन्तों के उत्पत्ति स्थान कुलों को त्याग देना चाहिये अर्थात उनकी जाति को मान्यता देने की आवश्यकता नहीं ।
(क्रमशः)
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