रविवार, 17 जून 2018

= विचार का अंग ३६(२९-३२) =

#daduji


卐 सत्यराम सा 卐
*शब्दों माहिं राम धन, जे कोई लेइ विचार ।*
*दादू इस संसार में, कबहुं न आवे हार ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
*विचार का अंग ३६*
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शब्द केलवणि१ कलि२ कलै३, गिरा गुप्त गति जाणी । 
रज्जब मोहे रामजी, सुन वेत्तों४ की वाणी ॥२९॥ 
बुद्धि१ शब्दों के विचार द्वारा कलियुग२ में भी ऐसी कलाबाजी३ करती है कि जिन ज्ञानी४ जनों की वाणी को सुनकर राम जी भी मोहित होते हैं, उनकी वाणी की गुप्त अर्थ रूप गति को भी जान जाती है । 
छोटे मोटे शब्द सुन, समझ्या वह नहिं जाय । 
शब्द शोर१ ज्यों श्रवण लग, अर्थ विचार समाय ॥३०॥ 
विचारवान् सन्तों के छोटे मोटे शब्द अर्थात थोड़े बहुत शब्द सुनकर समझ लेता है, वह भी विषयों की ओर रागपूर्वक नहीं जाता और जिसके कानों के कोलाहल१ के समान संतों के शब्द लगते ही रहते हैं, वह तो उनका अर्थ विचार के ब्रह्म में ही समा जाता है । 
भली बुरी संसार की, साधु दिल न समाय ।
पारीछे१ के नीर ज्यों, जन रज्जब चलि जाय ॥३१॥ 
जैसे कूप से जल निकालने का चरस जिस शिला पर पड़ता है, उस शिला१ में चरस का जल नहीं घुसता पड़ते ही बह जाता है, वैसे ही संसार की भली-बुरी बातें संत के हृदय में विचार के कारण नहीं घुसती, आती है वैसे ही चली जाती है । 
जब गाफिल१ गुफतार२ ह्वै, तब हाजी३ तइयार । 
और कहाव४ न कीजिये, रज्जब इहै विचार ॥३२॥ 
निन्दक३ जब असावधान१ अवस्था से सावधान होकर बात करने वाला२ होता है तब निन्दा करने करने को तैयार रहता है अन्य कहने४ की बात नहीं कहता, उसका ऐसा ही विचार होता है, वैसे ही संत बे-परवा१ स्थिति से उतर कर बात करने वाले२ होते हैं तब ब्रह्म सम्बन्धी बात करने को तैयार रहते हैं, अन्य कुछ नहीं कहते, उनका विचार इस स्थिति का ही होता है ।
(क्रमशः)

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