रविवार, 3 जून 2018

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卐 सत्यराम सा 卐
*सुख दुख मन मानै नहीं, आपा पर सम भाइ ।*
*सो मन ! मन कर सेविये, सब पूरण ल्यौ लाइ ॥* 
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साभार ~ Gems of Osho

कल्पनारहित, बंधनरहित और मुक्त बुद्धिवाले धीर पुरुष कभी बड़े-बड़े भोगों के साथ क्रीड़ा करते हैं, और कभी पहाड़ की कंदराओं में प्रवेश करते हैं।
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अष्टावक्र जी कहते हैं, मुक्त पुरुष को न तो महल से मोह है, और न झोपड़े से मोह है। जिनका महलों से मोह छूट जाता हैं, उनका झोपड़ों से मोह बंध जाता है, परन्तु मोह जारी रहता हैं। जिनका धन से मोह छूट जाता उनका निर्धनता से मोह बंध जाता है, परन्तु मोह जारी रहता।
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अष्टावक्र जी कहते हैं, कल्पनारहित, बंधनरहित और मुक्त बुद्धि वाले धीर पुरुष कभी बड़े-बड़े भोगों के साथ क्रीड़ा करते हैं।
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मुक्त पुरुष जैसा हो, उसमें ही सहमत हैं। महल, तो महल में राजी। सुख, तो सुख में राजी। सिंहासन, तो सिंहासन पर राजी। और कभी पहाड़ की कंदराएं, तो वे भी सुंदर हैं। सच तो यह है, मुक्त पुरुष महल में होता है तो महल प्रकाशित हो जाते हैं। मुक्त पुरुष कंदराओं में होता है, कंदराएं प्रकाशित हो जातीं। मुक्त पुरुष जहां होता वहीं सौंदर्य झरता। मुक्त पुरुष की उपस्तिति सभी वस्तुओं को अपूर्व गरिमा से भर देती है। वह पत्थर छुए तो हीरा हो जाता है। हीरा छुए तो स्वभावत: हीरे में भी सुगंध आ जाती है। सोने में सुगंध।
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परन्तु मुक्त पुरुष का किसी वस्तु से कोई आग्रह नहीं है। ऐसा ही हो, ऐसा ही होगा तौ ही मैं सुखी रहूंगा, ऐसा कोई आग्रह नहीं है। जैसा हो, उसमें वह राजी है। उसका राजीपन प्रगाढ़ है, गहरा है, पूर्ण है। समस्तरूपेण उसने स्वीकार कर लिया है। जो दिखाए प्रभु, जहां ले जाए उसके लिए राजी है। न वह महल छोड़ता है, न वह झोपड़े को चुनता है। जीता है सूखे पत्ते की भांति, हवा जहां ले जाए।

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