रविवार, 24 जून 2018

= पृथ्वी पुस्तक का अंग ३७(१२-१६) =

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卐 सत्यराम सा 卐
*दादू पखा पखी संसार सब, निर्पख विरला कोइ ।*
*सोई निर्पख होइगा, जाके नाम निरंजन होइ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
*पृथ्वी पुस्तक का अंग ३७*
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विष अमृत आकार आतमा, उभय उभय सु मंझार । 
रज्जब वसुधा वेद सु वैद्यक, वेत्ता वैद्य विचार ॥१३॥ 
पृथ्वी रूप वेद तथा पृथ्वी रूप वैद्यक दोनों में ही जीवात्मा के लिये अमृत का स्वरूप तथा बिष का स्वरूप है, वेद में आत्म-ज्ञान रूप अमृत है और भेद ज्ञान रूप विष है । वैद्यक में मारक औषधायाँ विष हैं और रक्षक अमृत हैं किन्तु पृथ्वी रूप वेद में स्थित अमृत तथा विष के विचार द्वारा ज्ञानी जानते हैं और वैद्यक स्थित अमृत तथा विष को विचार द्वारा वैद्य जानते हैं ।
पाने पुस्तक एक के, हिन्दू मुसलमान । 
सब में विद्या एक ही, पढै सु पण्डित प्रान ॥१४॥ 
हिन्दू और मुसलमान पृथ्वी रूप एक ही पुस्तक के पाने हैं, सभी में देखने-सुनने आदि की विद्या एक ही है अर्थात सभी आँखों से देखते हैं कानों से सुनते हैं इत्यादि, किन्तु इस प्रकार के विचार से पृथ्वी पुस्तक को कोई ज्ञानी प्राणी ही पढ़ता है अर्थात समझता है, अज्ञानी नहीं । 
तन मन मथ ज्योतिष कथा, गर्ग सु गहरे ज्ञान । 
गहण सहित गैणाग गम, रज्जब किया निदान ॥१५॥ 
तन को संयम द्वारा स्थिर करके मने से विचार रूप मंथन करके गर्गाचार्य ने ज्योतिष शास्त्र रूप गहरा ज्ञान कथन किया है, उसमें ग्रह गति से ही ग्रहण के सहित भविष्य बातों को जानने की गम प्राप्त होने के कारण कहा है, इससे भी पृथ्वी अर्थात ब्रह्माण्ड पुस्तक सिद्ध होता है । 
गैणाग=गैन=गमन, आग=आगम=भविष्य । 
कागद मसि के अक्षरों, पाठक प्राणि अनेक ।
रज्जब पुस्तक पिंड का, कोइ पढेगा एक ॥१६॥ 
कागज और स्याही के अक्षरों की पुस्तक पढ़ने वाले प्राणी तो अनेक हैं किन्तु ब्रह्माण्ड और पिंड का पुस्तक कोई विरला संत ही पढेगा । 
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इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित पृथ्वी पुस्तक का अंग ३७ समाप्त ॥सा. १२७५॥
(क्रमशः)

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