शनिवार, 16 जून 2018

= विचार का अंग ३६(२५-२८) =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*शब्द सुरति लै सान चित्त, तन मन मनसा मांहि ।*
*मति बुद्धि पंचों आतमा, दादू अनत न जांहि ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
*विचार का अंग ३६*
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शब्द गहै शमशेर२, प्रणी पायक१ की कला३ । 
टाले घाले हेर, सकल खिलारों में भला ॥२५॥ 
सतरंज के खेल में पादाति२ की शक्ति३ खेलने वाला प्राणी है, वही अपनी विजय के विचार द्वारा देखकर किसी को भी टाल देता है और किसी को मार देता है, इस प्रकार जो विजय प्राप्त करता है, वही सब खिलाङियों में अच्छा माना जाता है, वैसे ही साधक शब्द रूप तलवार१ को ग्रहण करके विचारपूर्वक देखते हुआ अपने सहायक दैवी गुणों को बचाकर आसुर गुणों को मारता हुआ मोह-नृप को विजय करता है, वही साधक श्रेष्ठ है । 
रज्जब बाइक१ वाजि२ पर, चढे सु बावन वीर३ । 
संसार समुद्र ऊपरी चले, ले पहुंचावे तीर ॥२६॥ 
वचन१ रूप अश्व२ पर बड़ा शूरवीर३ रूप साधक चढ़ता है अर्थात वचनों को विचारता है, तब वह साधक को लेकर संसार-समुद्र के ऊपरि से चलता हुआ ब्रह्म प्राप्ति रूप तीर पर पहुंचा देता है । 
मनसा१ नटनी बैन बरत२ चढ़, खेले कला अनूप । 
रज्जब चलतों धरणि गगन बिच, रीझहिं वेत्ता भूप ॥२७॥ 
नटनी रस्से२ पर चढ़कर अनुपम कला के द्वारा खेल खेलती है, उसे आकाश और पृथ्वी के बीच चलते देखकर राजा भी प्रसन्न होते हैं, वैसे ही बुद्धि१ शब्द पर जोकर अनुपम विचार करती है, उसे माया और ब्रह्म के बीच गमन करते देखकर ज्ञानी भी प्रसन्न होते हैं । 
अविती१ सविती२ केलवणि३, साधु वेद४ संसार । 
सौंधी सौं महँगी करी, नमो केलवणहार५ ॥२८॥ 
संसार के संतजन ज्ञान४ के उपदेश द्वारा विचार-धन-रहित१ बुद्धि को विचार-धन सहित२ कर देते हैं, उक्त प्रकार जिन संतों ने साधकों की सौधी बुद्धि३ को महँगी करी है, उन विचारवान्५ संतों को हम नमस्कार करते हैं ।
(क्रमशः)

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