बुधवार, 6 जून 2018

= माया मध्य मुक्ति का अंग ३५(७३-७६) =

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卐 सत्यराम सा 卐
*माया मगहर खेत खर, सद्गति कदे न होइ ।*
*जे बंचे ते देवता, राम सरीखे सोइ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
*माया मध्य मुक्ति का अंग ३५*
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ज्यों शेषनाग शुकदेव गति१, अवनि उदर के माँहिं । 
त्यों रज्जब रिधि२ मध्य सभी, भजन ब्रह्म ह्वै जाँहिं ॥७३॥ 
शेष नाग पृथ्वी में जाकर और शुकदेव माता के पेट में जाकर१ भजन द्वारा ब्रह्ममस्वरूप हो गये हैं, वैसे ही सभी गृहस्थी संत माया२ में रहकर भी भजन द्वारा ब्रह्मरूप हो जाते हैं । 
धरी१ धरे२ में है सदा, वपु बरतनि३ दृढ़ बंध । 
रज्जब रिधि४ रहित भजन, सो समझै नहिं अंध ॥७४॥ 
मायिक शरीरों की व्यावहारिक३ वृत्ति माया१ रूप होने से मायिक२ अर्थात विष्णु शिवादि गुणात्मकों के ही उपासना रूप दृढ़ बंधन में बँधी है, अत: ज्ञान नेत्रों से हीन अंधे प्राणी माया४ रहित निरंजन परमात्मा का भजन कैसे होता है, वह रहस्य नहीं समझते । 
अम्बर१ आभों२ को मिल हि, जन रज्जब स्वरूप । 
वसुधा३ वस्त्र सु एक ह्वै, पर बादल अमल अनूप ॥७५॥ 
बादलों२ को तथा पृथ्वी को सूक्ष्म रजरूप वस्त्र१ मिलता है किन्तु बादल तो वर्षा द्वारा रज रहित हो जाते हैं और पृथ्वी३ तथा रज दोनों एक हो जाते हैं, वैसे ही संतों और असंतों को माया मिलती है किन्तु संत तो ज्ञान द्वारा माया रहित हो जाते हैं और असंत मायामय ही बन जाते हैं अर्थात माया में आशक्त हो जाते हैं । 
माया पानी मीन जग, मरहिं नीर के दोष । 
मन रज्जब अहि आड गति१, जल थल में संतोष ॥७६॥ 
जल के कम होने के रूप दोष से मच्छियां मरने लगती है किन्तु जल में रहने वाले सर्प तथा आड नामक पक्षीयों को कोई कष्ट नहीं होता, उसकी चेष्टा१ तो जल तथा स्थल में समान ही होती है, वैसे ही माया कम होने से सांसारिक प्राणी तो मरने लगते हैं अर्थात दुखी होते हैं किन्तु संत तो माया सहित वा रहित दोनों स्थितियों में ही संतोष द्वारा परम प्रसन्न रहते हैं ।
(क्रमशः)

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