मंगलवार, 3 जुलाई 2018

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卐 सत्यराम सा 卐
*दादू मन हंसा मोती चुणै, कंकर दिया डार ।*
*सतगुरु कह समझाइया, पाया भेद विचार ॥* 
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साभार ~ @मुदित मिश्र विपश्यी 

*" सन्त पुरंदरे "*
सन्त पुरन्दर गृहस्थ थे तो भी क्या लोभ, क्या काम और क्रोध उन्हें छू भी नहीं गये थे। दो तीन घरों में भिक्षाटन करने उससे जो दो मुट्ठी चावल और आटा मिल जाता उससे वे अपना और धर्मपत्नी सरस्वती देवी का उदर पोषण कर लेते और दिन भर लोकसेवा के कार्यों में जुटे रहते। एक दिन विजय नगर के राजपुरोहित व्यासराय से महाराजा कृष्ण देवराय ने सन्त की प्रशंसा सुनी महाराज कृष्ण देवराय हंसे और बोले गृहस्थ में रहकर कौन तो निर्लोभ रहा कौन काम वासना से बचा? यदि गृहस्थ में ऐसा संभव हो जाये तो ये सभी अपना मनुष्य शरीर सार्थक न कर ले?
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*“कर सकते हैं”* व्यासराय बोले - यदि लोग सन्त पुरन्दर और देवी सरस्वती की भाँति निर्लोम सेवा परायण व सरल जीवन जीना सीख ले महाराज कुछ खिन्न हो गये बोले ऐसा ही है तो आप उनसे कुछ दिन यही हमारे यहाँ भिक्षाटन के लिए कह दें। व्यासराय ने सन्त पुरन्दर से जाकर आग्रह किया “आप आगे से राजभवन से भिक्षा ले आया करें”।
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सन्त पुरन्दर राजभवन जाने लगे वहाँ से मिले चावल ही उनके उदर पोषण के लिए पर्याप्त होते सन्त अपनी सहज प्रसन्नता के लिये हुए जाते, उसका अर्थ महाराज कुछ और ही लगाते। एक दिन तो उन्होंने व्यासराय से कह भी दिया देख लो आपके सन्त श्री निष्पृहता। आज कल देखते नहीं कितने प्रसन्न रहते हैं। व्यासराय बोले आपका तात्पर्य समझा नहीं इस पर महाराज राजपुरोहित के साथ सन्त पुरन्दर के घर पहुँचे देखा उनकी धर्मपत्नी चावल साफ कर रही है महाराज ने पूछा बहन। यह क्या कर रही हो? 
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*इस पर वे बोली आज कल न जाने कहाँ से भिक्षा लाते हैं इन चावलों में कंकड़ पत्थर भरे होते हैं। यह कह - उन्होंने अब तक बिने रत्न उठाये और बाहर की तरफ उन्हें फेंकने चल पड़ी महाराज यह देख कर अवाक् रह गये।*
अखण्ड ज्योति
सितम्बर,1987

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