रविवार, 8 जुलाई 2018

= चरणोदक प्रसाद का अंग ४०(९-११) =

#daduji

卐 सत्यराम सा 卐
*दादू राम मिलन के कारणे, जे तूँ खरा उदास ।*
*साधु संगति शोध ले, राम उन्हीं के पास ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
*चरणोदक प्रसाद का अंग ४०*
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वेत्ता१ वैरागर२ मई३, निकसे लाल अनूप । 
रज्जब मुग्ध४ मुरशिद५ थली६, क्या पावे खणि७ कूप ॥९॥ 
ज्ञानी१ संत तो हीरों२ की खानि रूप३ हैं उनमें उपमा सहित भक्ति वैराग्य ज्ञानादि रूप अनेक लाल निकलते हैं किन्तु मूर्ख४ गुरु५ तो रेगिस्तान६ की भूमि के समान हैं उनमें कूप खोद७ कर क्या प्राप्त करे अर्थात उसमें लाल कहां ? कंकर भी नहीं निकलते, वैसे ही ज्ञानी संतों के चरण - जल तथा प्रसाद के पूण्य मिलता मिलता है मुर्ख भेषधारी से नहीं । 
सद्गुरु के सु प्रसाद में, भाव भक्ति करतार । 
रज्जब वामा१ बिन्दु२ ले, बालक होत न बार३ ॥१०॥ 
नारी१ पुरुष से वीर्य२ लेती है, तब बालक होने में देर३ नहीं लगती, समय पर हो ही जाता है, वैसे ही सद्गुरु के सुन्दर प्रसाद में भाव और भक्ति रहती है अर्थात प्रसाद से भक्ति प्रकट होकर उनकी परिपाकावस्था के समय अवश्य ज्ञान होकर ब्रह्म का साक्षात्कार होता है । 
सद् गुरुके सु प्रसाद में, रज्जब दोष न कोय । 
यथा कामिनी बाँझ के, बालक कदे न होय ॥११॥ 
यदि नारी बंध्या हो तो निर्दोष वीर्य होने पर भी बालक नहीं होता, वैसे ही सद्गुरु के प्रसाद में तो कोई दोष नहीं किन्तु शिष्य में श्रद्धा नहीं हो तो भक्ति ज्ञानादि नहीं होते फिर ब्रह्म का साक्षात्कार कैसे हो सकता है । 
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इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित चरणोदक प्रसाद का अंग ४० समाप्त । सा. १३२२ ॥
(क्रमशः)

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