शुक्रवार, 13 जुलाई 2018

= १९६ =

卐 सत्यराम सा 卐
*सोने सेती बैर क्या, मारे घण के घाइ ।*
*दादू काटि कलंक सब, राखै कंठ लगाइ ॥* 
*पाणी माहैं राखिये, कनक कलंक न जाहि ।*
*दादू गुरु के ज्ञान सों, ताइ अगनि में बाहि ॥* 
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साभार ~ SK Mehta

खरी कसौटी राम की काँचा टिकै न कोय।
गुरु खरी कसौटी के आधार पर शिष्य को परखते हैं, कहीं मेरे शिष्य का शिष्यत्व कच्चा तो नहीं है। ठीक एक कुम्हार की तरह ! जब कुम्हार कोई घड़ा बनाता है, तो उसे बार-बार बजाकर भी देखता है - 'टन ! टन !' वह परखता है कि कहीं मेरा घड़ा कच्चा तो नहीं रह गया। इस में कोई खोट तो नहीं है।
ठीक इसी प्रकार गुरु भी अपने शिष्य को परीक्षाओं के द्वारा ठोक-बजाकर देखते हैं। शिष्य के विश्वास, प्रेम, धेर्य, समर्पण, त्याग को परखते हैं। वे देखते हैं कि शिष्य कि इन भूषनों में कहीं कोई दूषण तो नहीं ! कहीं आंह की हलकी सी भी कालिमा तो इसके चित पर नहीं छाई हुई ? यह अपनी मन-मति को बिसारकर, पूर्णत: समर्पित हो चूका है क्या ?
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क्यों कि जब तक स्वर्ण में मिटटी का अंश मात्र भी है, उससे आभूषण नहीं गढ़े जा सकते। मैले दागदार वस्त्रों पर कभी रंग नहीं चढ़ता। उसी तरह, जब तक शिष्य में जरा सा भी अहम्, स्वार्थ, अविश्वास या और कोई दुर्गुण है, तब तक वह अध्यात्म के शिखरों को नहीं छू सकता। उसकी जीवन - सरिता परमात्म रुपी सागर में नहीं समा सकती।
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यही कारण है कि गुरु समय समय पर शिष्यों की परीक्षाएं लेते हैं। कठोर न होते हुए भी कठोर दिखने की लीला करते हैं। कभी हमें कठिन आज्ञाएं देते हैं, तो कभी हमारे आसपास प्रतिकूल परिस्थियाँ पैदा करते हैं। क्यों कि अनुकूल परिस्थियाँ में हर कोई शिष्य होने का दावा करता है। जब सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा होता है, तो हर कोई गुरु-चरणों में श्रद्धा-विश्वास के फूल आर्पित करता है।
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कौन सच्चा प्रेमी है ? इस की पहचान तो विकट परिस्थियों में ही होती है। क्यों कि जरा-सी विरोधी व प्रतिकूल परिस्थियां आई नहीं कि हमारा सारा स्नेह, श्रद्धा और विश्वास बिखरने लगता है। शिष्त्यव डगमगाने लगता है।
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जब श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने शिष्यों को कसौटी पर कसा, तो हजारों के झुण्ड में से सिर्फ पांच पियारे ही निकले। इस लिए सच्चा शिष्य तो वही है, जो गुरु की कठिन आज्ञा को भी शिरोधार्य करने का दम रखता है। चाहे कोई भी परिस्थिति हो, उसका विश्वास, उसकी प्रीत गुरु -चरणों में अडिग रहती है। सच ! शिष्य का विश्वास चट्टान की तरह मजबूत होना चाहिए। वह विश्वास नहीं जो जरा-सी विरोध की आँधियों में डगमगा जाए !!
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गुरु की परीक्षाओं के साथ एक और महत्त्वपूर्ण तथ्य जुड़ा है। वह यह कि परीक्षाएं शिष्य को केवल परखने के लिए ही नहीं, निखारने के लिए भी होती है। गुरु की परीक्षा एक ऐसी कसौटी है, जो शिष्य के सभी दोष-दुर्गुणों को दूर कर देती है। परीक्षाओं की अग्नि में तपकर जो एक शिष्य कुंदन बन पाता है। कहने का आशय कि गुरु की परीक्षाएं शिष्यों के हित के लिए ही होती है। परीक्षाओं के कठिन दौर बहुत कुछ सिखा जाते हैं। याद रखें, सबसे तेज आंच में तपने वाला लोहा ही, सबसे से बड़ा इस्पात बनता है।
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इस लिए एक शिष्य के हृदय में सदैव यही प्रार्थना के स्वर गूंजने चाहिए - 'हे गुरुवर, मुझ में वह सामर्थ्य नहीं कि आपकी कसौटियां पर खरा उतर सकूं। आपकी परीक्षाओं में उतीर्ण हो सकूं। पर आप अपनी कृपा का हाथ सदा मेरे मस्तक पर रखना। मुझे इतनी शक्ति देना कि मैं हर परिस्थिति में इस मार्ग पर अडिग होकर चल पाऊँ। मुझे ऐसी भक्ति देना कि आपकी कठिन से कठिन आज्ञा को भी पूर्ण समर्पण के साथ शिरोधार्य कर सकूँ। जय गुरु। 

प्रस्तुतकर्ता: शिवेन्द्र कुमार मेहता 
गुरुग्राम, हरियाणा

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