गुरुवार, 5 जुलाई 2018

= १८० =

卐 सत्यराम सा 卐
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*दादू सेवक सांई वश किया, सौंप्या सब परिवार ।*
*तब साहिब सेवा करै, सेवक के दरबार ॥२७३॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! भक्तजन अपने मन इन्द्रियों के समस्त विषय - व्यापार से हटकर और व्यावहारिक धन, धान्य, पुत्र, स्त्री इन सबको परमेश्वर के अर्पण करके भक्ति में अखंड लीन रहते हैं । इस प्रकार सेवक ने परमेश्वर को अपने वश में कर लिया है और फिर परमेश्वर सेवक का सर्व व्यवहार आप ही पूरा करते हैं । भक्तजन प्रभु के पूर्ण सामथ्र्य भाव को अनुभव करके सदा निश्चेष्ट रहते हैं ॥२७३॥ 
अनन्याश्चिनायन्तो मां ये जनाः पर्युपासते । 
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं बहाम्यहम् ॥
(गीता ९ - २२)
बलि प्रभु जीवन वश किये, तन धन सर्वस दीन्ह । 
दरवाजे दरबान ज्यों निसदिन सेवा कीन्ह ॥ 
दृष्टान्त - भक्त प्रहलाद के पौत्र और राजा विरोचन के पुत्र का नाम बलि था । उसने अपने गुरु शुक्राचार्य के मन्त्र और अपनी शक्ति से तीनों को जीत लिया और इन्द्र पद भी प्राप्त कर लिया । देवता उससे त्रस्त थे । वे अपनी रक्षा के लिये भगवान् विष्णु की शरण गये । क्योंकि राजा बलि निष्पापी और महादानी था, अतः भगवान् उससे युद्ध तो कर नहीं सकते थे । 
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विष्णु ने तपस्वी ब्राह्मण का वेश बनाकर वामन रूप में बलि के पास गये और उसकी प्रशंसा के साथ उसके पूर्वजों का भी यश - गान करने लगे । आपके पितामह प्रहलाद की दृढ़ भक्ति और भगवत्प्रेम के आगे भगवान् को स्तम्भ चीर कर नृसिंह रूप में प्रकट होना पड़ा । आपके पिता विरोचन तो इतने उदारमना थे कि विप्रवेशधारी इन्द्र को उसकी याचना पर अपनी युवावस्था प्रदान कर दी । आपके प्रपितामह भी महान् वीर थे । आप बड़े भाग्यवान् हैं । 
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अपनी व अपने पूर्वजों की प्रशंसा से प्रसन्न होकर राजा बलि ने कहा - वामनदेव, आप जो भी चाहें, मांग लीजिये । मैं देने को तैयार हूँ । वामन बोले - आज प्रातः मैं किसी सेठ के आँगन पर बैठा संध्या - पूजा कर रहा था तो उसने मुझे वहाँ से भगा दिया । मेरी संध्या अपूर्ण रह गई । मैंने सोचा कि मेरी भी अपनी थोड़ी सी जमीन हो तो निःसंकोच होकर अपनी संध्या - पूजा तो कर सकूं । अतः मात्र तीन कदम भर भूमि आप मुझे दान कर दें तो आप पुण्य के भागी होंगे । 
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राजा बलि - महाराज, आपने मात्र इतना ही क्यों मांगा ? मैं तीन कदम भूमि तो क्या तीन ग्राम दे सकता हूँ । तीन कदम भूमि देते हुए तो मुझे बड़ा संकोच और लज्जा हो रही है । वामन - मैं तो संतोंषी ब्रह्मचारी ब्राह्मण हूँ । आवश्यकता से अधिक की इच्छा व संग्रह लोभ कहलाता है । लोभ असन्तोष तथा संग्रह विग्रह उत्पन्न करता है । मैंने गत जन्म में किसी को कुछ भी नहीं दिया था, इसीलिये मेरी ऐसी दशा हुई कि मुझे भिखारी बनना पड़ा । यदि आप दान नहीं दोगे तो आपकी भी ऐसी ही दशा होगी । यह मैं इसलिये कह रहा हूँ कि भिखारी मात्र भीख मांगने के लिये नहीं, मधुर वचनों या संगीत के माध्यम से लोगों को सन्मार्ग का ज्ञान करावें - "भिक्षुकाः नैव भिक्षन्ति, बोधयन्ति गृहे गृहे ।"
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यह सदुपदेश सुनकर राजा बलि ने विप्र वामन को तीन कदम भूमि का दान संकल्पित कर दिया । ऐसा करते ही वामन ने विराट् स्वरूप धारण कर लिया और एक ही कदम में सारी पृथ्वी नाप ली । दूसरे चरण में ब्रह्मलोक को व्याप्त कर लिया । जब कोई स्थान ही नहीं बचा तो बलि ने दैन्य भाव से अपना मस्तक झुकाकर कहा - आप अपना तीसरा चरण मेरे मस्तक पर रखिये । परमात्मा द्रवित होकर बोले - तुमने मुझे सर्वस्व समर्पण कर दिया तो मैं तुम्हारा ऋणी हो गया । मैंने इन्द्र को स्वर्ग का राज्य दिया है, तुम्हें पाताल का राज्य देता हूँ और द्वारपाल बनकर मैं इसकी चौकसी करूँगा । अब मैं सेवक बनकर तुम्हारी सेवा करूँगा । जो आपा(अहंकार) भेंटकर प्रभु को वन्दन करता है, वही उसे बन्धन में रख सकता है ।
*श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग*
चित्र सौजन्य : Chetna Kanchan Bhagat

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