गुरुवार, 5 जुलाई 2018

= १७९ =

卐 सत्यराम सा 卐
*सत्संगति मगन पाइये,* 
*गुरु प्रसादैं राम गाइये ॥टेक॥*
*आकाश धरणी धरीजे,* 
*धरणी आकाश कीजे,* 
*शून्य माहिं निरख लीजे ॥१॥* 
*निरख मुक्ताहल मांहैं साइर आयो,* 
*अपने पिया हौं ध्यावत खोजत पायौ ॥२॥* 
*सोच साइर अगोचर लहिये,* 
*देव देहुरे मांही कवन कहिये ॥३॥* 
*हरि को हितार्थ ऐसो लखै न कोई,* 
*दादू जे पीव पावै अमर होई ॥४॥* 
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*सत्संग क्या है? सत्संग की महिमा क्या है?*

मैं यहाँ हूँ, तुम यहाँ हो, दोनों के बीच कोई बाधा नहीं, अवरोध नहीं, यही सत्संग है। विवाद नहीं, संवाद है, यही सत्संग है। एक शून्य यहाँ, एक शून्य वहाँ, दो शून्यों का मिलन सत्संग है। एक दीया यहाँ, एक दीया वहाँ, दो दीयों का साथ— साथ जल उठना सत्संग है।
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सत्संग भाव की एक दशा है। विचार की नहीं। सत्संग हृदय का खुला होना है, जैसे सुबह कमल खिल जाए सूरज के लिए। सूरज और कमल के बीच सत्संग है सूरज दे रहा है बेशर्त, कमल ले रहा है बेशर्त। न देने में कोई संकोच है, न लेने में कोई संकोच है। न देने वाला कृपण है देने में, न लेने वाला कृपण है लेने में। न देने वाला है, न लेने वाला है, दोनों तरफ सन्नाटा है, निर—अहंकार भाव है, वही सत्संग है। ये सुबह के चुपचाप खड़े वृक्ष, ये सूरज की बरसती हुई किरणें, यह पक्षियों का कलरव, यह चुपचाप तुम्हारा यहाँ बैठे होना, जब भी तुम्हारे भीतर विचार की धारा बंद हो जाती है, तभी सत्संग हो जाता है।
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मैं शून्य हूँ, जब तुम विचार से भरे होते हो, तुम मुझसे दूर होते हो। शून्य के पास आने का उपाय शून्य होना ही है। समान ही समान के पास आ सकेगा। तुम जब विचार से भरे हो, तुम बहुत दूर हो। चाँद—तारों पर कहीं, यहाँ नहीं। कहीं और, कहीं और। हजार स्थान होने के हो सकते हैं। मगर जरा—सी विचार की तरंग उठी कि तुम यहाँ नहीं हो, एक बात सुनिश्चित है। कहीं और होओगे। सत्संग टूट गया। धागा टूट गया। सेतु न रहा। हम दो अलग दुनियाओं में हो गये। हमारे बीच कोई संबंध न रहा। विचार गया—एक क्षण को भी चला जाए— निर्विचार सघन हुआ, तुम सिर्फ मौन वहाँ बैठे रहे, खुले, उन्मुक्त, स्वागत करते, जरा—भी तुमने अवरोध न दिया, जरा—भी तुमने बाधा खड़ी न की, मैं—भाव निर्मित न हुआ—एक क्षण का अंतराल' काफी है—वही सत्संग घट जाता है। और एक क्षण का सत्संग इतना दें जाता है, जितना विचार का एक पूरा जीवन भी न दे सकेगा। अनंत—अनंत जीवन न दे सकेगे जो, एक क्षण का सत्संग दे जाता है। 
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पर सत्संग कभी—कभी घटता है। इसलिए मैं रोज बोले जाता हूँ। आज नहीं, घटेगा कल घटेगा, कल नहीं परसों घटेगा कौन जाने किस घड़ी में घट जाए? कौन जाने कौनसा शब्द चोट कर जाए? कौन जाने किस भावदशा में तुम खुल जाओ तुम्हारा कमल खुले और तुम सूरज को पी लो? एक बार सत्संग लग जाए, एक बार जोड़ बैठ जाए, फिर तो बार बार बैठने लगता है। एक बार समझ आ जाए, स्वाद आ जाए, फिर तो बार बार लेने में अड़चन नहीं रह जाती, क्योंकि सूत्र तुम्हारे हाथ आ गया। गणित पर तुम्हारी पकड़ हो गयी। फिर तो तुम चुपचाप अपने भीतर उस भावदशा को कभी भी बुला ले सकते हो। फिर यहाँ बैठने की भी जरूरत नहीं है, तुम दूर हो कहीं, तो भी सत्संग बन सकता है। ऐसा सत्संग बन सके इसीलिए संन्यास का आयोजन किया है। तुम दूर रह कर भी जुड़ सको, यही संन्यास के पीछे सूत्र है। तुम दूर रह कर भी मेरे पास हो सको।

- ओशो ~ संतो मगन भया मन मेरा

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