卐 सत्यराम सा 卐
*चंद सूर पावक पवन, पाणी का मत सार ।*
*धरती अंबर रात दिन, तरुवर फलैं अपार ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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*दास दीर्घा का अग ४१*
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सृष्टि सहित सांई लिया, साधु ने उर माँहिं ।
उभय समाने दास दिल, तो सेवक सम कोउ नाँहिं ॥५॥
संत ने अपने हृदय में भगवान की लीला रूप सृष्टि के सहित भगवान को अभेद चिन्तन द्वारा धारण कर रखा है अत: दास के हृदय में दोनों समाये हुये हैं, इससे सेवक के समान अन्य कोई भी नहीं हो सकता ।
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जन रज्जब जल दल१ निमित्त, यति२ सती३ के जाय ।
भगवंत सहित भोजन किया, बड भागी भृत४ भाय५ ॥६॥
साधु२ गृहस्थ३ के धर अन्न४ - जल के निमित्त जाता है और हृदयस्थ भगवान के भोग लगा कर भोजन करता है तब वहाँ भक्त और भगवान दोनों ही जीमते हैं, अत: गृहस्थ भक्त४ भाव५ द्वारा बड़ा भागी माना जाता है ।
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भले बुरे भूले नहीं, आतम दृष्टि दास ।
रज्जब नाते नाम के, सब को देता ग्रास ॥७॥
चाहे भला भिक्षु आवे या बुरा, आत्मा पर ही जसकी दृष्टि जाती है ऐसा भक्त तो उनके भगवान नाम उच्चारण के सम्बन्ध से सभी को भोजन देता है । किसी को भी नहीं भूलता ।
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रज्जब उपजै दया दिल, मन में साधु न चोर ।
जयों इन्द्र उदार न देख ही, सर१ ऊसर२ की ठौर ॥८॥
जैसे उदार इन्द्र तालाब१ वा अनुपजाऊ भूमि२ आदि स्थानों के भेद को न देख कर सभी स्थानों में जल वर्षाता है, वैसे ही आत्म दृष्टि भक्त के हृदय में तो दोनों को देखकर दया उत्पन्न होती है । उस के मन में साधु-चोर का भेद उत्पन्न नहीं होता, अत: वह सभी को देता है ।
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सरवर तरुवर सती१ के, मुर२ ठाहर मत एक ।
रज्जब जल दल३ सम दृष्टि, यो४ ही बड़ा विवेक ॥९॥
सरोवर, वृक्ष और सदगृहस्थ१ इन तीनों२ का एक ही मत है, सरोवर जल देने में, वृक्ष फलादि देने में और सद् गृहस्थ अन्न३ जल देने में सम रहता है, यह४ समता ही महान् विवेक-विचार माना जाता है । इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित दास दीर्घ का अंग ४१ समाप्त । सा. १३३१ ॥
(क्रमशः)
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