बुधवार, 4 जुलाई 2018

= १७७ =

卐 सत्यराम सा 卐
*दादू जब ही साधु सताइये, तब ही ऊँध पलट ।*
*आकाश धँसै, धरती खिसै, तीनों लोक गरक ॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जब कोई सच्चे परमेश्वर के अनन्य भक्त, मुक्त - संतों को सताते हैं, तब ही ‘ऊँध पलट’ कहिये, उसका परिणाम बुरा होता है । परमेश्वर की व्यापकता और स्थिरता की भावना को बड़ा आघात पहुँचता है, तथा स्वर्गलोक, मृत्युलोक, पाताल लोक की उत्तम रीति - रिवाजों का नाश होता है ॥ 
खेड़ा पलटै धूँधली, जय अरु विजय अकाश । 
धरणी फटी जयदेव हित, तिहूँ लोक दुर्वास ॥ 
दृष्टान्त -
(१) धूँधलीमल महात्मा पट्टण गाँव के पहाड़ पर समाधि में बैठे थे । उनका आज्ञाकारी शिष्य सेवा में रहता था । नगर में भिक्षा लेने गया । लोगों ने हँसी मजाक किया । एक कुम्हार - कुम्हारी भक्त थे उस गाँव में । उन्होंने इसको आधी रोटी भिक्षा की दी । यह फिर बारह वर्ष तक कुम्हारी के लड़कों के साथ जंगल से लकड़ी लाकर, बाजार में बिक्री करके, अनाज लाकर कुम्हारी को देता । वह माई पीस पोकर रोज इसको रोटी देती । वह गुरु महाराज के सामने जाकर रखता और मानसिक भोग लगाकर पा लेता । बारह वर्ष में जब गुरु की समाधि खुली, शिष्य ने गुरुदेव के चरणों में प्रणाम किया । गुरु ने जब शिष्य के सिर पर हाथ रखा तो सिर के बाल उड़े देखे और पूछा - बाल कैसे उड़ गये ? शिष्य बोला - "गुरुदेव ! यह गाँव बड़ा दुष्ट है ।" उपरोक्त सब वार्ता सुना दी । तब गुरु भिक्षा लेने गये । वैसे ही लोगों ने हँसी - मखौल किया । उसी कुम्हारी ने आधी रोटी भिक्षा की दी । गुरुदेव पहाड़ पर आ गये । शिष्य को बोले - उस कुम्हारी को बोलो कि तुम्हारे बाल - बच्चों को लेकर पहाड़ पर आ जाओ, गुरुदेव को कोप हो रहा है, न मालूम क्या होगा ? धूँधली मल ने अपना भिक्षा पात्र हाथ में लिया और जमीन पर उल्टा करके मारते हुए बोले - 
"पट्टण - पट्टण, सभी ही डट्टण" । 
भारत में सात पट्टण गाँव थे, सातों के सातों उल्टे हो गये ।
.
(२) जय और विजय भगवान् के द्वारपाल थे । सनकादिकों से सामना किया । उनके श्राप से बैकुण्ठ छोड़कर, मृत्युलोक में इनको धकेल दिया । इस आख्यान का सब ही को पता है ।
.
(३) केन्दुबिल्व निवासी ब्राह्मण कुल में जयदेव जी महाराज भारी भक्त हुए, जिनका ‘गीत गोविन्द’ ग्रन्थ बनाया हुआ है । उनको बुद्धिजीवी जानते हैं । इनको ठगों ने लूट लिया था । फिऱ आपने उन ठगों को साधु भेष में देखकर उनकी राजा से बहुत सेवा कराई । जब वे ठग वहाँ से चले, तब राजपुरूषों के सामने महाराज जयदेव जी की भारी निन्दा की । उनके पाप से पृथ्वी एक दम फटी और ठग जमीन में गर्क हो गये ।
.
(४) इसी प्रकार दुर्वासा ऋषि ने भक्त अम्बरीष महाराज को कालकृत्या राक्षसी के द्वारा भस्म करना चाहा, तब सुदर्शन - चक्र भगवान् ने भक्त की रक्षा के लिये वहाँ रख रखा था । वह कोप करके कालकृत्या राक्षसी के ऊपर पड़ा और उसे भस्म कर दिया, फिर दुर्वासा को अपने तेज से तपाने लगा । तीनों लोक में दुर्वासा बारह वर्ष तक चक्र खाते रहे, परन्तु उनकी रक्षा किसी ने भी नहीं की । जब भगवान् विष्णु के चरणों में जाकर पड़े, तब भगवान् बोले - हे ऋषि ! तुमने मेरे प्रिय साधु को सताया है, उन्हीं की शरण में जाओ, वह मेरा भक्त बड़ा दयालु है, वही तुम्हें सुखी करेंगे । जब दुर्वासा अम्बरीष महाराज के पास आकर ‘त्राहि त्राहि’ करके गिरे । भक्तराज ने ऋषि को उठाया और चरणों में नमस्कार किया और फिर सुदर्शन चक्र की तरफ देखकर बोले - ‘भक्त न चाहत आन पदार्थ, ब्राह्मण राखिऊ कष्ट हरे हैं ।’ हे भगवान् के सुदर्शन चक्र ! मुझे कोई इच्छा नहीं है । आप इस ब्राह्मण की रक्षा करो ।
*श्री दादूवाणी ~ निन्दा का अंग*

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें