बुधवार, 25 जुलाई 2018

= १७ =

卐 सत्यराम सा 卐
*पीव सौं खेलूँ प्रेम रस, तो जियरे जक होइ ।*
*दादू पावै सेज सुख, पड़दा नाहीं कोइ ॥* 
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साभार ~ Sonika Mathur

एक बहुत बड़ा सर्जन, जिसकी सारी जगत में ख्याति थी, जब साठ वर्ष का हुआ और उसकी साठवीं वर्षगांठ मनाई गई तो सारी दुनिया से उसके मित्र इकट्ठे हुए, उसके मरीज इकट्ठे हुए और उन्होंने उसका बड़ा स्वागत किया। लेकिन वह बड़ा उदास था। उसके स्वागत में एक नृत्य का आयोजन किया गया था। तो जब लोग नृत्य करने लगे और वह सर्जन देखता रहा तो उसकी आंख से आंसू टपकने लगे।
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उसके पास बैठे उसके मित्र ने पूछा, क्या मामला है? हम सब तुम्हारी वर्षगांठ पर इकट्ठे हुए प्रसन्नता से। यह नृत्य तुम्हारे स्वागत में होता है, तुम रोते क्यों हो? तुम्हारी आंख में आंसू क्यों हैं? तुम किस पीड़ा से भीग गए हो? उसने आंसू पोंछ लिए। उसने कहा कि नहीं, वह कोई बात नहीं है। पर मित्र ने जिद्द की। कहा कि क्या तुम्हें कोई जीवन में विफलता मिली? तुम जैसा सफल आदमी नहीं है। तुमने जो आपरेशन किया, सफल हुआ। तुम्हारे जैसा कुशल सर्जन दुनिया में नहीं। फिर क्या?
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लेकिन उसने कहा, मैं कभी सर्जन होना ही नहीं चाहता था। मेरा दिल तो एक नर्तक होने का था। आज नाच को देखकर मैं रो उठा। मैं छोटा-मोटा नर्तक होता, कोई मुझे न जानता तो भी मेरी तृप्ति होती। आज मैं दुनिया का सबसे बड़ा सर्जन हूं, लेकिन मेरी कोई तृप्ति नहीं है। मेरी नियति ही मुझे न मिली। तो आज भी जब मैं किसी को नाचते देखता हूं तो बस, मुझे याद हो आती है।
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तुम अपनी जिंदगी को गौर से देखो। पहली तो बात--जो कर रहे हो उसमें रस लेने की कोशिश करो। हो सकता है तुमने रस का अभ्यास नहीं किया। *तुम्हें किसी ने सिखाया ही नहीं कि रस का अभ्यास कैसे करना। रस के अभ्यास का पहला सिद्धांत है कि जो भी कर रहे हो, इसका परिणाम मूल्यवान नहीं है। तुम्हें यही सिखाया गया है कि परिणाम मूल्यवान है।* तुम करते हो, इससे दस रुपये मिलेंगे कि हजार रुपये मिलेंगे कि लाख रुपये मिलेंगे। लाख रुपये में मूल्य है, परिणाम में मूल्य है।
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*रस का सिद्धांत है, जो तुम कर रहे हो, वह अपने आप में मूल्य है। अंतर्निहित है मूल्य। हजार मिलेंगे, दस हजार मिलेंगे, वह बात गौण है। करने में जो डुबकी लगेगी वही बात महत्वपूर्ण है। अगर डूब गए तो मिल गए करोड़ों। अगर न डूबे और करोड़ों भी मिले तो कुछ भी न मिला। वह समय व्यर्थ गया, जो बिना डूबे गया। वे दिन व्यर्थ ही बीते, जो बिना डूबे बीते। जब रसधार न बही तो तुम जीए न जीए बराबर। रस-विमुग्धता में ही जीवन है।*
ओशो

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