मंगलवार, 3 जुलाई 2018

= साधु मिलाप मङ्गल उत्साह का अंग ३९(९-१२) =

#daduji

卐 सत्यराम सा 卐
*साधु शब्द सुख वर्षहि, शीतल होइ शरीर ।*
*दादू अन्तर आत्मा, पीवे हरि जल नीर ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
*साधु मिलाप मङ्गल उत्साह का अंग ३९*
साधु दर्श नैना ठरै१, शब्द परस२ सुन कान । 
रज्जब मेला३ मन मिल्यूं, सब ठाहर सुख सान४ ॥९॥ 
संतों के दर्शन से नेत्र शीतल१ अर्थात सुखी होते हैं, उनके शब्द सुनने को मिल जायँ२ तो कान सुखी होते हैं और मिलने३ पर उनके विचारों में मन मिल जाय तो सभी स्थानों को सुख मिलता४ है । 
रज्जब आँख कान अड़बी१ मिटी, सुन्या सु देख्या नैन । 
उभय ठौर आनन्द भया, चार्यों पाया चैन ॥१०॥ 
कान सुयश सुनकर प्रसंशा करता है तब आँख कहती है क्या पता है ? ऐसे है या नहीं, यह आँख कान का विवाद१ मिट गया कारण - "सन्त सुयश जैसा सुना था वैसा नेत्रों ने देख लिया । संत का दर्शन होते ही साधक तथा संत दोनों के हृदय स्थान में आनन्द होता है तथा दोनों के चारों नेत्र प्रसन्न होते हैं । 
मंगल शक्ति१ समान सब, शिव२ मंगल सु अगाध । 
रज्जब सो तब पाइये, जब घर आवैं साध ॥११॥ 
सांसारिक सभी आनन्द मायिक बल१ के समान सीमित ही होते हैं, किन्तु ब्रह्म२ प्राप्ति का आनन्द अपार है, जब संत घर आते हैं तब ही वह ब्रह्मानन्द प्राप्त होता है । 
और सकल सुख सुगम हैं, यहु सुख अगम अगाध । 
रज्जब रसन१ न कहि सके, जो सुख मिलतों साध ॥१२॥ 
अन्य मायिक सुख तो सभी सुगम और सीमित हैं किन्तु जो संतों के मिलन से ब्रह्म सुख होता है वह अगम और अगाध है, उस सुख को कोई भी रसना२ से अर्थात वाक् इन्द्रिय से नहीं कह सकता ।
(क्रमशः)

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