शनिवार, 21 जुलाई 2018

= लघुता का अंग ४२(४१/४४) =

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卐 सत्यराम सा 卐
*आप अकेला सब करै, घट में लहरि उठाइ ।*
*दादू सिर दे जीव के, यों न्यारा ह्वै जाइ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
*लघुता का अंग ४२*
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रज्जब राम उमँग कर, आप सहित दे सर्व । 
तऊ दास दिल दीन मत, ज्ञाता होय न गर्व ॥४१॥ 
राम प्रसन्न होकर अपने सहित सर्वस्व दे तो भी ज्ञानी भक्त के हृदय में दीनता का सिद्धान्त ही रहता है, ज्ञानी को गर्व नहीं होता । 
सलिल संठ१ रस गुड़ गटी२, खांड तरी भइ ताहि । 
मिश्री ह्वै मुख तृण लिया, रज्जब कही न जाहि ॥४२॥ 
गन्ना का रस राब बन, गुड़ के टुकड़े१ रूप में आया, खाँड, बुरा, इस प्रकार जब पूर्ण उन्नति पर इकर मिश्री रूप हुआ तो उस मिश्री ने नम्रता का सूचक मुख में अर्थात अपने बीच में तृणा रखा(पहले बांस की सीकों पर मिश्री बनाई जाती थी) नम्रता को महिम महान् है कही भी नहीं जाती । श्रेष्ठ पुरुषों की जितनी उन्नति होती है उतने ही वे नम्र बनते जाते हैं । 
रज्जब लहुड़हुं१ आदरहिं, तिन सम बड़ा न कोय ।
बूंदहुं उठे समुद्र जी, देखि बुद बुदा होय ॥४३॥ 
बड़े भी छोटों का आदर करते हैं, छोटों के समान बड़ा कोई नहीं है, देखो, आकाश से जल बिन्दु समुद्र में पड़ती है, तब समुद्र भी उसका आदर करने को बुदबुदा के रूप में उठाता है । 
नीचे ऊंचे आवहिं, दाल भात दिशि जोय । 
जन रज्जब अज्जब कही, तलैं सु ऊपरि होय ॥४४॥ 
थाली में नीचे दाल और ऊपर चावल परोसे जाते हैं किन्तु जीमते समय चावल नीचे और दाल ऊपर हो जाती है, वैसे ही परमार्थ मार्ग में प्रभु प्राप्ति के समय अभिमान नीचे और नम्र ऊंचे हो जाते हैं । 
गरीब निवाज गुसाइयाँ, पुनि निवाज१ नर पत्ति । 
रज्जब सीप गजेन्द्र को, मुक्ता देय सु सत्ति ॥४५॥ 
परमात्मा गरीब तथा राजा दोनों पर ही कृपा१ करने वाले हैं, देखो, सीप तथा गजेन्द्र दोनों को ही मोती देते हैं । इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित लघुता का अंग ४२ समाप्त ॥ सा. १३७६ ॥
(क्रमशः)

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