शुक्रवार, 20 जुलाई 2018

= लघुता का अंग ४२(३७/४०) =

#daduji

卐 सत्यराम सा 卐
*दादू सैंधव के आपा नहीं, नीर खीर परसंग ।*
*आपा फटिक पाषाण के, मिलै न जल के संग ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
*लघुता का अंग ४२*
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सकुचि कली हरि तरु लगै, अलग सु फूलण फूल । 
तो रज्जब सिमटया रही, ज्यों छूटे नहिं मूल ॥३७॥ 
फूल की संकुचित कली तो वृक्ष के लगी रहती है और फूलकर फूल होते ही अलग हो जाता है, वैसे ही साधक को सिकुड़ा अर्थात लघु ही रहना चाहिये, जिससे अपने मूल प्रभु से अलग न हो सके । 
मातंग१ महोदधि२ निपजैं, मुक्त उभय मँझार । 
रैणायर३ गरबै नहीं, गरबै गजसु गँवार ॥३८॥ 
हाथी१ और समुद्र२ दोनों में मोती उत्पन्न होते हैं समुद्र३ में अधिक मोती होते हैं तो भी गर्व नहीं करता और हाथी में थोड़े होने पर भी वह गर्व करता है, वैसे ही संतों में बहुत गुण होने पर भी वे गर्व नहीं करते और दुर्जन में थोड़ा सा गुण हो तो भी वे गर्व करते हैं । 
साधु मति१ दीपक बुझे, बह्यों२ बड़ाई बाव३ । 
रज्जब राखहु ज्योति को, तो लघुता जतन उपाव ॥३९॥ 
वायु३ चलकर२ लगने से दीपक बुझ जाता है, वैसे ही बड़ाई की भावना उत्पन्न होने से साधु का ज्ञान१-दीपक बुझ जाता है । उसकी ज्योति की रक्षा के लिये न्रमता रूप साधन ही उपाय है अत: नम्र रहना चाहिये । 
अधिपति२ आभे१ अवनि अतीत३, 
झुकि झुकि मन लहिं अज्जब रस रीत । 
गरीब गर्द जयों जाय आकाश, 
तो रज्जब नाम धरैं सुन तास ॥४०॥ 
जैसे सजल बादल१ पृथ्वी की ओर झुकते हैं वैसे ही नृप२ गण ब्रह्मरूप अदभुत रस प्राप्ति की रीति जानने के लिये संतों३ की ओर झुकते हैं, और जैसे सूक्ष्म रज आकाश में बढ़ती है तब प्रियकर नहीं होती, वैसे ही गरीब नम्रता को त्याग के अभिमान करता है तो उसका नाम जो रखते हैं उसे सुन अर्थात उसे अभिमानी नाम से पुकारते हैं ।
(क्रमशः)

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