बुधवार, 18 जुलाई 2018

= लघुता का अंग ४२(२९/३२) =

#daduji

卐 सत्यराम सा 卐
*दादू एक विचार सौं, सब तैं न्यारा होइ ।*
*मांहि है पर मन नहीं, सहज निरंजन सोइ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
*लघुता का अंग ४२*
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तरुवर सफल सजल अति आभे१, मान सुगुण नमै२ निज दास । 
जन रज्जब फल जल गुण छूटैं, तीन्यों ऊंचे जाँय आकाश ॥२९॥ 
फलों से युक्त वृक्ष, अधिक जल से युक्त बादल१ और जिसके मन में श्रेष्ठ गुण हों, ऐसा भगवान का निज भक्त ये नीचे ही नमते हैं और फल, जल, सुगुण से रहित तीनों ऊंचे आकाश में ही जाते हैं अर्थात जिन वृक्षों में फल नहीं आते हों उनकी टहनी आकाश की ओर ऊंची जाती है, जल रहित बादल ऊंचे जाते हैं और सुगुण हीन मनुष्य बड़े बनते हैं । 
रज्जब झरते१ धुकि२ धरनी मिलहिं, अझर सु ऊंचे जाँहिं । 
उभय अंग३ आभे लियों, कृपण कृपालु हुं माँहिं ॥३०॥ 
वर्षने१ वाले बादल झुक२ कर पृथ्वी से मिलने के लिये नीचे की और आते हैं और न वर्षने वाले ऊंचे जाते हैं वैसे ही बादलों के दोनों लक्षण कृपण और कृपालु जन लिये रहते हैं अर्थात कृपण तो बड़े बनते हैं और कृपालु नम्र होते हैं । 
जड़ नीचहुं ऊंचे गये, रज्जब नर तरु साखि । 
मनसा वाचा कर्मना, ताते लघुता राखि ॥३१॥ 
भारी होने से वृक्ष की जड़ नीचे ही रहती है और हलके होने से पत्र, फुल, फल ऊंचे रहते हैं, वैसे ही जो नर अपने को बड़ा मानते हैं वे नीचे रहते हैं और जो अपने को लघु मानते हैं वे मन वचन कर्म से ऊंचे अर्थात श्रेष्ठ होते हैं, इससे हृदय में लघुता ही रखनी चाहिये । 
आपै चढ़ नीचा गया, उतर्यों उंचा जाय । 
ज्यों रज्जब कर बेणु परि, निरख नाद निरताय ॥३२॥ 
वंशी पर हाथ को देखो, वंशी को बजाते समय हाथ ऊंचा जाता है तब तो उसे नीचे आना ही पड़ता है और नीचे आता है तो ऊंचा आता है, वैसे ही विचार करके देखो, जो अभिमान से बड़ा बनता है, उसे छोटा होना ही पड़ता है और जो छोटा बनता है वह बड़ा बन जाता है ।
(क्रमशः)

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