सोमवार, 30 जुलाई 2018

= २७ =


卐 सत्यराम सा 卐
*देही मांही देव है, सब गुण तैं न्यारा ।*
*सकल निरंतर भर रह्या, दादू का प्यारा ॥* 
*जीव पियारे राम को, पाती पंच चढाइ ।*
*तन मन मनसा सौंपि सब, दादू विलम्ब न लाइ ॥* 
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साभार ~ Anil Kumar Swami

*विश्व भरन पोसन कर जोई !*
*ता कर नाम भरत असी होई !!*
तुलसीदासजी ने चारों भाइयों की वन्दना की है। चारों भाइयों में सबसे बड़े राम हैं। इसलिए व्यवहार की दृष्टि से प्रथम वन्दना श्रीराम की होनी चाहिए थी। पर तुलसी ने पहली वन्दना राम की न करके, रामचरणारविन्द में भौंरे के समान लीन भरतजी के चरणकमलोंकी की है।
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भरत चरित्र अद्भुत चरित्र है। तुलसी ने कहा है कि चित्रकूट में वास करते हुए १४ वर्ष दूध और फल का आहार कर तपस्या करने वाले को रामजी का दर्शन होगा। साक्षात्कार होने पर भगवान पूछेंगे - क्या वरदान दूँ ? जो माँगोगे वही देंगे। पर रामजी से यदि कहोगे कि महाराज एक याचना है - चित्रकूट में वृक्ष के तले, पत्थर की शिला पर बैठ कर आप भरत-चरित्र की कथा कहें। आपके मुखारविन्द से मुझे भरत-चरित्र सुनना है। तो रामजी कहेंगे - यह मेरे से नहीं हो सकेगा।
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*भरत का चरित्र इतना अगाध है कि इसका वर्णन स्वयं रामजी भी नहीं कर सकते। भरत प्रेम अति गुप्त है। सन्तों ने इसकी बड़ी सरस उपमा दी है। भरत समुद्र हैं। समुद्र की गहराई का थाह लगाना आसान नहीं है और समुद्र में कितने जलचर प्राणी हैं, इसकी भी जानकारी नहीं रहती।* भरतजी का जीवन दृष्टि में नहीं आएगा। उनकी महिमा अगम्य है। गोस्वामीजी ने लिखा है कि १४ वर्ष वनवास के पश्चात रामजी अयोध्या पधारे। राज्याभिषेक हुआ। अयोध्या के लोग नाचने लगे। देवता वाद्य-यन्त्र बजाने लगे। अबीर गुलाल की आँधी उड़ने लगी। राजा राम सिंहासन पर विराजमान हुए। महारानी सीताजी बायीं तरफ बैठीं। आरती उतरने लगी। सभी उत्सव में डूब गए।
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इस समय हनुमानजी जैसे बुद्धिमान की दृष्टि किसी को खोज रही थी। उन्होंने देखा कि शत्रुघ्न महाराज खड़े हैं, लक्ष्मणजी खड़े हैं, सभी हैं, पर भरतजी नहीं हैं। भरतजी को खोजते हुए वे राजसिंहासन के पीछे गए। देखा कि भरतजी चुपचाप बैठे हैं। पीछे बैठ कर रामजी पर छत्र लगाये हुए हैं और आँखों से अश्रुधारा बह रही है। यह दृश्य देख हनुमानजी के नेत्र अश्रुपूर्ण हो गए। पवनपुत्र ने भरतजी के चरणों में वन्दन करते हुए कहा - महाराज आप यहाँ कैसे ? आगे आइये। 
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भरतजी ने कहा - मारुती मैं यहीं ठीक हूँ। हनुमानजी ने कहा की महाराज रामराज्य का दृश्य दिखाने वाले तो आप ही हैं। आप रामराज्य के मूल हैं। आप न होते तो भारत को यह चित्र न मिलता। चित्रकार इस तरह छिपे, यह कैसे हो सकता है ?
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*जब हनुमानजी ने बार-२ भरतजी से सन्मुख आने का आग्रह किया, तो भरतजी ने कहा - हनुमानजी, मैंने जीवन में एक भी ऐसा काम नहीं किया है कि मैं श्रीराम के सन्मुख खड़ा हो सकूँ। मेरा जन्म तो रामजी को दुःख देने के लिए हुआ है। मैं ही माताओं के वैधव्य का कारण बना। मैं कैसे सन्मुख जाऊँ ?*
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हनुमानजी बोले - महाराज, यह तो आप की महानता है। कृपा करके आगे आइये। 
भरतजी बोले - नहीं, मैं यहीं बैठे-२ छत्र फेरता रहूँगा। इतनी ही सेवा मिल जाए तो पर्याप्त है।
हनुमानजी की आँखें भर आई आयीं। एकदम भगवान के सामने आये। चरणों में वन्दन किया और बोले - महाराज, राज्यारोहण के इस समारोह में सभी हर्ष में डूबे हुए हैं। एक व्यक्ति को आप भूल गए हैं। लोग तो याद नहीं करते, आप भी भूल गए हैं। 
रामजी ने पूछा - किसे ?
'भरतजी कहाँ हैं ? क्या आपको जानकारी है ?' 
'कहाँ है ?'
'प्रभु, पीछे छत्र घुमा रहे हैं।' 
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*रामजी ने कहा - हनुमान मेरा भी कथन है कि यदि भरत का छत्र मेरे सिर पर नहीं होता, तो रामराज्य नहीं होता। मैं सुरक्षित हूँ यह इस 'छत्र' का ही प्रभाव है।
कैसा अद्भुत पात्र है ! इस पुरुष का त्याग कितना दिव्य है !* 
जय राधे ~ जय श्री राम

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