बुधवार, 11 जुलाई 2018

= १९२ =

卐 सत्यराम सा 卐
*साईं सत संतोष दे, भाव भक्ति विश्वास ।*
*सिदक सबूरी साँच दे, माँगे दादू दास ॥*
==========================
साभार ~ Rp Tripathi

**क्या हम ग़ुलाम का जीवन जी रहे हैं ? :: एक संक्षिप्त अवलोकन** 

सम्मानित मित्रों; जब भी हम इस प्रश्न पर गहराई से चिंतन करेंगे तो पायेंगे कि - यदि हमारे जीवन के किसी भी कार्य का उद्देश्य; सुख या पुण्य की चाह है; तो हाँ; हम गुलाम(Slave) की तरह जीवन-यापन कर रहे हैं !! क्योंकि; कर्मफल से जुड़ते ही हम; उस कर्म या क्रिया के गुलाम हो जाते हैं !! 
.
तथा इस गुलामी से मुक्ति के लिये - "कर्मों के परिणाम से सुख या पुण्य की चाह नहीं; वरन समस्त छोटे-बड़े; घर-बाहर; स्वयं या अन्य के लिए सम्पादित हो रहे कर्मों को; सुख या पुण्य के भाव में स्थित हो सम्पादित करने के अतिरिक्त; हमारे पास अन्य कोई उपाय नहीं है !!" और इस दायरे में सिर्फ़ भौतिक कर्मों को ही नहीं; वरन धार्मिक-अनुष्ठान; नाम-जप आदि को रखना परमावश्यक है !! अर्थात सभी कर्म आनंद की चाह के लिए नहीं; वरन आनंदित भाव में सम्पादित हों !! 
.
और मित्रों; यही ना सिर्फ़ परमात्मा कृष्ण का कर्मयोग का सिद्धांत है; वरन हम सभी की अपनी समझदारी भी यही कहती है !! क्योंकि इतना तो हम सभी जानते हैं कि - जीवन सदैव वर्तमान की स्वांश और उसकी गुणवत्ता पर केंद्रित रहता है !! वर्तमान में स्वांश नहीं तो जीवन नहीं !! वर्तमान में स्वांश अशांत; तो जीवन अशांत !! अशांत मनोदशा अर्थात् दिशाहीन; ग़ुलामी की दिशा में ले जाने वाले कर्मों का सम्पादन !! 
.
इसी कारण चाह में आह; या अपेक्षा में उपेक्षा छुपी रहती है !! तथा वर्तमान में खुश रहना ही; ना सिर्फ भौतिक-रूप से समझदार; वरन आध्यात्मिक-रूप से समझदार व्यक्ति की भी पहचान कहलाती है !! Being happy in the Present is not only Being Intelligent but Being Spiritual too ..!! 
.
और चूँकि वर्तमान वह कहलाता है; जो प्राकृतिक विधान के अनुसार घट रहा है !! और जो घट रहा है; उसमें हमारे पास सिर्फ़ दो ही विकल्प हैं - या तो जो घट रहा है; उसे प्रसन्नता से स्वीकार करें; या उसमें दुःख मनाकर अशांत मनोदशा के वशीभूत हो विवेकहीन कर्म कर; गुलाम की तरह जीवन जीएँ !! जिस के विषय में संत कबीर कहते हैं - 
कबिरा जा संसार में; सुख दुःख सबको होय !
ज्ञानी काटे ज्ञान से; मूरख काटे रोय ..........!! .... 
या अंग्रेज़ी में कहा जाता है - Pain is inhabitable but suffering is optional..!! 
.
मित्रों गुलामी से मुक्ति का उपरोक्त उपाय; समझदारी भरा होते हुए भी व्योहार में लाने में; प्रारम्भ में कुछ कठिन अवश्य प्रतीत होता है !! अतः आइये इस विषय पर इन निम्न दो उदाहरणो के माध्यम से; कुछ और प्रकाश डालें - 
.
१. प्रथम उदाहरण - दवा और प्राकृतिक स्वास्थ्य नियमों; दोनों से स्वास्थ्य लाभ मिलता है; परंतु दोनों के स्वास्थ्य लाभों में एक बहुत ही सूक्ष्म और रहस्य-मय अंतर है !! बीमार होने पर दवाई खाना उचित है !! अस्पताल जाना अच्छा है !! स्वस्थ होने पर; व्यायामशाला या जिम में जाकर और अधिक कुशल श्रेणी का स्वास्थ्य लाभ लेना; उससे भी अच्छा है !! परंतु मित्रों प्राकृतिक स्वास्थ्य नियमों के पालन से मिलने वाले स्वास्थ्य लाभ से इसकी तुलना; कभी नहीं की जा सकती !! 
.
क्योंकि प्राकृतिक स्वास्थ्य नियमों का पालन; अपनी तरफ़ से कोई स्वास्थ्य नहीं देता !! वरन सिर्फ़ शरीर में प्राकृतिक रूप से स्वयं पैदा होने वाली आंतरिक रोग निरोधक क्षमता(Natural Immune system) में आये अवरोध(Obsticle) को; दूर करने का कार्य करता है !! और जब तक हम अपनी आंतरिक रोग प्रतिरोधक क्षमता में आये अवरोध को; प्राकृतिक/सहज रूप से दूर नहीं करते ? तब तक अनजाने में ही हम; इन सभी साधनों के चक्रव्यूह में दिन प्रतिदिन; फँसते जाते हैं !! अर्थात् इनके ग़ुलाम होते जाते हैं !! 
.
इससे ना हम सिर्फ़ जीवन भर; अस्पतालों के चक्कर काटते रहते हैं वरन अनजाने में ही अपनी अंतिम स्वांश; अस्पताल में छोड़ने का इंतज़ाम कर लेते हैं !! इतना ही नहीं हम अपने घर में ही कब अपना व्यक्तिगत औषधालय भी खोल लेते हैं; इसका भी हमें भान नहीं होता !! क्योंकि दवा की एक शीशी; दूसरी दवा की शीशी को प्रसव(Birth) देती है !! 
.
और यह क्रम तब तक चलता रहता है; जब तक हमें यह ना समझ में ना आ जाये कि - शरीर की प्राकृतिक आंतरिक रोग प्रतिरोधक क्षमता के उत्पादन में आ गये अवरोध को दूर करने में ही; पूर्ण समझदारी है !! तथा - ज्ञान के अभाव को अज्ञान नहीं कहते; वरन अपूर्ण ज्ञान को अज्ञान कहते हैं !! और यह अपूर्ण ज्ञान या अज्ञान(Incomplete-knowledge or Ignorance) ही जीवन की समस्त परेशानियों का कारण है !! 
.
२. द्वितीय उदाहरण - पानी पर तैरना(Swimming) और पानी पर उतराना(Floating); दोनों से स्वास्थ्य लाभ मिलता है; परंतु दोनों के स्वास्थ्य लाभों में भी एक सूक्ष्म और रहस्यमय अंतर है !! व्यायाम के लिए तैरने का सहारा लेना अच्छा है; इससे जल में डूबने से होने वाला मृत्यु-भय भी कुछ कम होता प्रतीत होता है !! परंतु यह प्रतीति पूर्ण-सत्य नहीं है !! क्योंकि तैरने में प्रयास करना होता है; तथा जहाँ भी प्रयास है; वहाँ थकावट तो आयेगी ही; और थकने पर जल में डूबना निश्चित है !! जल में डूबने के भय से पूर्णत: तो; सिर्फ़ जल में उतराने की कला ही बचा सकती है !! क्योंकि इसमें प्रयत्न नहीं; वरन प्रयत्न-शैथिल्य-अवस्था अर्थात् सहजता की उपस्थिति होती है !! उसी तरह जैसे मुर्दा शरीर; सहजता से जल के ऊपर उतराता रहता है !! 
.
परंतु शरीर मुर्दा होकर जल पर उतराया तो क्या उतराया ? बात तो तब है जब यह जीवित भी रहें और जल में डूबे भी नहीं !! अर्थात; हम संसार में भी रहें; सभी साधनों का विवेक युक्त उपयोग भी करें; और इनकी ग़ुलामी में भी ना फ़सें !! मित्रों स्वांश तो स्वांश देने वाले की कृपा से चलती है; अपने प्रयास से कभी नहीं !! अपना प्रयास तो हमें अस्थमा; रक्तचाप या तनाव आदि बीमारियों का मरीज़ बना देता है !! 
.
जीवन की आपा-धापी(Rat-Race) में; अनजाने में ही हमारी स्वशन-तंत्र इतना गड़बड़ा जाता है कि - स्वांशो की गति कितनी असहज(Unnatural) हो जाती है; इसका हमें पता ही नहीं चलता !! अतः हम इस जल पर उतराने की प्रक्रिया में मात्र; अपनी स्वशन-तंत्र को पुनः उसके मूल-स्वरूप में(Natural-State) में पहुँचा देते हैं; जिससे स्वांशो की गति सहज हो जाती है !! यह इसी तरह है जैसे ठीक से ना चल रहे मोबाइल को; पुनः उसकी फैक्टरी सेटिंग पर ले आना !! 
.
इसमें क्रिया नहीं; अक्रिया घटती है !! स्वांश को इतना शिथिल करते जाते हैं कि - स्वशन-प्रक्रिया अपनी सहज अर्थात प्रयत्न-शैथिलय अवस्था तक पहुँच जाती है !! और इस अवस्था में पहुँचते ही; चेहरे पर एक सहज-स्वाभाविक मुस्कान झलकने लगती है !! तथा चेहरे पर सहज स्वाभाविक मुस्कान के प्रगट होते ही; चमत्कारिक रूप से बिना प्रयास ही हमारा शरीर जल पर उतराने लगता है !! और जब तक यह सहज-स्वाभाविक मुस्कान चेहरे पर बनी रहती है; तब तक शरीर जल में नहीं डूबता !! 
.
यह उसी तरह सम्भव हो जाता है जैसे - एक हलके पन के सिद्धांत(Principle of Buoyancy) के सधने से; और सधे रहने तक; लोहे का जहाज़; का ना सिर्फ़ जल में स्वयं उतराता रहता है; वरन अपने निर्माता के उद्देश्य की भी पूर्ति करता रहता है !! अर्थात जहाज़ के सहारा लेने वाले भार को भी; डूबने से बचाता रहता है !! व्योहारिक उपयोगिता की भाषा में हम कह सकते हैं - हमारे चेहरों पर सहज स्वाभाविक मुस्कान; जिसकी उपस्थिति और निरंतरता; वह राम-बाण साधन है; जो जहाज़ की तरह सिर्फ़ मुस्कुराने वाले व्यक्ति को ही नहीं; वरन उसके सानिध्य/सहारे में जी रहे सभी व्यक्तियों के जीवन को; आनंद-मय बना कर; जीवन के उद्देश्य को सफल कर देती है !!
.
क्योंकि मित्रों; जिस तरह सिर्फ़ जहाज़ ही नहीं; वरन किसी भी जीव-निर्मित वस्तु का अपना कोई अलग से उद्देश्य नहीं होता !! निर्माता के उद्देश्य की पूर्ति ही निर्मित वस्तु का एक मात्र उद्देश्य होता है !! उसी तरह; इस प्रकृति-निर्मित अपने शरीर के जीवन का भी; अलग से कोई उद्देश्य नहीं है !! प्रकृति के मालिक-संचालक अर्थात् परमात्मा के उद्देश्य को पूरा करना ही; इसका एक मात्र उद्देश्य है !! To fulfill the purpose of it's maker; the God ..!! 
.
तथा इससे भिन्न अन्य उद्देश्य ही; जीव का अहंकार(EGO - Edging God Out) कहलाता है !! और यही अहंकार जीव को - वस्तु; व्यक्ति; परिस्थिति; पद; सम्पदा आदि का ग़ुलाम बनाता है !! मित्रों इस ग़ुलामी से बचने के लिए हमें संतों की सूक्तियों का निरंतर मनन चिंतन करते रहना चाहिए; जो उनके जीवन के अनुभव हैं !! तथा जिस तरह एक भौतिक वैज्ञानिक; अपने से पूर्व के वैज्ञानिकों के अनुभवों का लाभ उठाकर नए आविष्कार करते जाते हैं; उसी तरह हमें भी अपने जीवन को इन संतों के अनुभवों से लाभ उठाकर; निरंतर सँवारते जाना चाहिए !! 
.
कुछ सूक्तियाँ इस प्रकार हैं :- 
.
सहज मिले सो दूध सम; माँगा मिले सो पानी !
कह कबीर वह रक्त सम; जा में खेंचा तानी !! 
.
गोधन गज़धन बाज़िधन; और रतनधन खानि ! 
जब आवे संतोषधन; सन धन धूरि समान !! 
.
चाह गई चिंता गई; मनुआ बेपरवाह !! 
जाको कछु ना चाहिये; वो ही शहंशाह !! 
.
जहाँ काम तहाँ राम नहीं, जहाँ राम नहीं काम !
दोनों कबहूँ नहीं मिलें; रवि रजनी इक धाम !! 
.
क्या उपरोक्त से सहमत हैं सम्मानित मित्रों ? 
.
********ॐ कृष्णम वन्दे जगत् गुरुम********

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें