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॥ श्री दादूदयालवे नमः ॥
स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - *सुन्दर पदावली*
साभार ~ महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य ~ श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविध्यालय(जयपुर) व राजकीय आचार्य संस्कृत महाविध्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*= ४. राग कानड़ो =*
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(३)
*संत समागम करिये भाई ।*
*जानि अजानि छुवै पारस कौं लोह पलटि कंचन होइ जाई ॥(टेक)*
अरे भाई ! हमारा तुम को यही परमर्श है कि सन्तों का संग अवश्य करना चाहिये । जैसे लोक में हम देखते हैं कि जानते हुए या न जानते हुए, पारस पत्थर का स्पर्श लोहे को सुवर्ण बना ही देता है ॥टेक॥
*नाना बिधि बतराई कहावत भिन्न भिन्न करि नाम धराई ।*
*जाकौं बास लगै चन्दन की चन्दन होत बार नहिं काई ॥१॥*
लोक में ह्म चन्दन के विषय में बहुत सी बातें सुनते हैं, उसके भिन्न भिन्न नाम भी सुनते हैं । वहाँ यह भी प्रसिद्ध है कि चन्दन वृक्ष के समीप खड़े वृक्ष को चन्दन के तुल्य गन्धमय होने में कोई विलम्ब नहीं लगता ॥१॥
*नवका रूप जानि संतसंगति तामैं सब कोई बैठहु आई ।*
*और उपाइ नहीं तरिबै कौ सुन्दर काढी राम दुहाई ॥२॥*
इस सत्संग को तुम, भवसागर पार करने के लिये, एक नाव के तुल्य ही समझो । अतः निश्चिन्त होकर इसमें आकर बैठो; क्योंकि महात्मा सुन्दरदास जी भी राम की सिद्ध सत्यता का आश्रय लेकर यही कर रहे हैं कि इस भवसागर को पार करने का इसके अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प(उपाय) नहीं है ॥२॥
(क्रमशः)
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