गुरुवार, 19 जुलाई 2018

= लघुता का अंग ४२(३३/३६) =

#daduji

卐 सत्यराम सा 卐
*दादू उलट अनूठा आप में, अंतर सोध सुजाण ।*
*सो ढिग तेरे बावरे, तज बाहर की बाण ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
*लघुता का अंग ४२*
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परमारथी पन्नग१ पति, सृष्टि भार शिर लीन । 
तो रज्जब प्रभु पुहमि२ पर, नाम तिन्हों के कीन ॥३३॥ 
शेषजी१ ने जैसे सृष्टि का भार अपने शिर पर ले रखा है, वैसे ही परोपकारी सज्जन दीन दुखियों के दु:ख दूर करने का भार अपने पर लेते हैं तब परमात्मा पृथ्वी२ पर उनका नाम अमर कर देते हैं । 
गुण डोरी नीचे खिचत, ज्ञान दीप आकाश । 
रज्जब उलटे पेच१ को, समझै समझ्या दास ॥३४॥ 
घरों में आकाश दीप जलाया जाता है तब ज्यों ज्यों उसकी डोरी नीचे खैंची जाती है त्यों-त्यों वह ऊंचा जता है, वैसे ही ज्यों ज्यों गुण नीचे खैंचे जाते हैं अर्थात कम किये जाते हैं त्यों-त्यों ज्ञान ऊंचा अर्थात बढ़ता जाता है किन्तु इस उलटी समस्या१ को विचारशील भक्त ही समझ पाता है । 
नीचे ऊंचे थान पर, बैठत भारी भोल । 
फूस फेण सो समुद्र शिर, पग तल नग निरमोल ॥३५ ॥ 
नीचे-ऊंचे स्थान पर बैठने से नीचा-ऊंचा मानना महान् भूल है देखो, फूस और झाग समुद्र के शिर पर रहते हैं और बहुमूल्य नग नीचे रहते हैं किन्तु फूस तथा झाग ऊपर रहने से बड़े तो नहीं होते नीचे रहने वाले नग ही बड़े माने जाते हैं, वैसे ही अभिमान द्वारा बड़ा नहीं होता नम्रता से ही नर बड़ा होता है । 
मीठी मही महंत मति, कण जण निपजे माँहिं । 
फोकट१ फूले खारछे२, रज्जब नेपै३ नाँहिं ॥३६॥ 
मीठी पृथ्वी में अन्न उत्पन्न होता है, व्यर्थ१ फूले हुये खरड़े२ में खेती३ नहीं होती, वैसे ही महान् संतों की बुद्धि के आश्रय से जन श्रेष्ठ होते हैं दुर्जनों की बुद्धि के आश्रय से नहीं ।
(क्रमशः)

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