शुक्रवार, 6 जुलाई 2018

= चरणोदक प्रसाद का अंग ४०(१-४) =

#daduji

卐 सत्यराम सा 卐
*जब चरण कमल रस पीवै, तब माया न व्यापै जीवै ।*
*तब भरम करम भय भाजै, तब तीनों लोक विराजै ॥*
*जब चरण कमल रुचि तेरी, तब चार पदारथ चेरी ।*
*तब दादू और न बांछै, जब मन लागै सांचै ॥*
================= 
**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
*चरणोदक प्रसाद का अंग ४०*
इस अंग में चरण धोये हुए हुए जल और प्रसाद का महात्म्य कह रहे हैं ~ 

चरणोदक रु प्रसाद कण, मुख न पड़े मति मंद । 
तो रज्जब अंतर रहा, कहिये गुरु गोविन्द ॥१॥ 
यदि गुरुदेव का चरण जल और प्रसाद का कण मुख में नहीं पड़ता है तो समझो वह शिष्य मति-मंद है तथा गुरु की कृपा और गोविन्द की प्राप्ति में उसकी यह अश्रद्धा ही विघ्न हो रहा है ऐसा ही कहना चाहिये । 
चरणोदक रु प्रसाद यूं, जे कोउ ले सत भाय । 
ज्यों रज्जब मुख मेल१ तों, दुख दारू२ तैं जाय ॥२॥ 
गुरु तथा गोविन्द का चरण-जल और प्रसाद कल्याण प्रदाता है ऐसा समझकर सच्चे भाव से कोई भी लेता है तो जैसे औषधि२ मुख में रखने१ से रोग-जन्य दुख जाता है वैसे ही गुरु-गोविन्द का चरण-जल और प्रसाद मुख में रखने से पाप नष्ट होते हैं । 
परसादी गुरुदेव दे, पस-खुरदा१ पुनि पीर२ । 
तो रज्जब सु कृपा कर्म, सुखी सौख३ इहिं४ सीर५ ॥३॥ 
गुरुदेव और सिद्ध२ महात्मा जूठा प्रसाद१ दे तो समझना चाहिये, यह काम उनकी सुकृपा होने का चिन्ह है । शिष्य को प्रसाद प्राप्त करने की उत्कंठा३ होती है तभी इस४ प्रसाद में उसका साझा५ होता है वह प्रसाद पाकर परम सुखी होता है । 
कुमति काट१ ऊपरि फिरे, भये अवनि२ औलाद३ । 
सो रज्जब पलटे नहीं, पारस मय सु प्रसाद ॥४॥ 
जो लोहा बहुत काई१ आजाने से पृथ्वी२ की संतान३ वृक्ष के समान हो गया है वह पारस के स्पर्श से सुवर्ण रूप में नहीं बदलता, वैसे ही जो कुमति के प्रभाव से वृक्ष समान जड़ हो गये हैं वे ही बदलने वाले पारस रूप सुप्रसाद से संतरूप में नहीं बदलते, बाकि शुद्ध शिष्य तो बदलते ही हैं ।
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें