रविवार, 30 सितंबर 2018

= पीव पिछाण का अंग ४७(३७/४०) =

#daduji

卐 सत्यराम सा 卐
*दादू एक विचार सौं, सब तैं न्यारा होइ ।*
*मांहि है पर मन नहीं, सहज निरंजन सोइ ॥* 
===============
**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
*पीव पिछाण का अंग ४७*
.
व्यापक वह्नी१ व्योम२ की, अंध्रिप३ अग्नि औतार । 
मिल हिं सु अंतर्द्धान ह्वै, तो है नाहिं उर धार ॥३७॥ 
आकाश२ में रहने वाले व्यापक अग्नि१ अंश वृक्ष३ के काष्ट में प्रकट होता है और काष्ट को जलाकर व्यापक अग्नि में ही मिल जाता है, वैसे ही अवतार व्यापक ब्रह्म की विभूति हैं, प्रकट होती है और अपना कार्य करके पुन: अंतर्द्धान होकर ब्रह्म में ही मिल जाती है, अत:सगुण अवतार ब्रह्म नहीं ऐसा ही हृदय में धारण करो । 
उष्ण१ सु काढै अंभ२ को, ऊन्हि३ सु काढै प्रान । 
त्यों अवतार सु आँटे४ कढै, मन वच कर्म कर मान ॥३८॥ 
उष्णता१ समुद्र से जल२ निकालती है, ज्वर३ शरीर से प्रान निकालता है, वैसे ही कोई राक्षासादि के द्वारा जगत् के व्यवहार में उलझन४ पड़ती है तब वह उलझन ही अवतार होने में निमत्ति बनती है, यही मन, वचन कर्म से सत्य मानो । 
राक्षस रोग जीवहुं लगे, तहँ औषधि अवतार । 
ब्रह्म वैद्य न्यारा रहै, व्यथा विध्वंसनहार ॥३९॥ 
वैद्य रोगी के रोग को औषधि देकर नष्ट करता है किन्तु रोग नष्ट करने वाला होकर भी वैद्य औषधि से अलग ही रहता है । वैसे ही राक्षस जीवों को दुखी करते हैं तब ब्रह्म राक्षसों को मारकर जगत् के जीवों को सुखी करने के लिये अवतार भेजते हैं और राक्षसों को मारकर जीवों का दु:ख दूर करने वाले होकर भी ब्रह्म अवतारों से अलग ही रहते हैं, सगुण नहीं होते । 
अनेक रोग कर मृत्यु उपावे, अनेक औषधि सारा१ । 
व्यथा सु बूँटी के शिर दीजे, हरै२ करै३ सो न्यारा ॥४०॥ 
अनेक रोग उत्पन्न करके मृत्यु करता है और अनेक औषधि उत्पन्न करके निरोग१ करता है, मृत्यु को रोगों के शिर मढ़ देता है और निरोगता औषधियों के शिर मढ़ देता है और उत्पन्न३ करने वाला तथा मारने२ वाला है, वह परमात्मा अलग ही रह जाता है, वह किसी से भी लिपायमान नहीं होता ।
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें