रविवार, 10 मार्च 2019

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🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*जाग जतन कर राखो सोई, तब तन तत्त न जाई ।*
*चेतन पहरे चेतत नांहीं, कहि दादू समझाईं ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ पद. २१९)*
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साभार ~ @Shaily Rai

प्रश्न: सुरक्षा के लिए मुझे जो नाटक करना पड़ता है, उसे करूं या छोड़ दूं? और अब तो नाटक भी साथ छोड़ रहा है। मुझे सही मार्ग बताने की कृपा करें।
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सारा जीवन ही एक नाटक है--संबंधों का, बाजार का, घर-गृहस्थी का। सारा जीवन ही अभिनय है। छोड़कर कहां जाओगे? भागकर कहां जाओगे? जहां जाओगे, वहीं फिर कोई नाटक करना पड़ेगा। इसलिए भगोड़ेपन के मैं पक्ष में नहीं हूं।
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कुशल अभिनेता बनो। भागो मत। जानकर अभिनय करो, बेहोशी में मत करो, होशपूर्वक करो। होश सधना चाहिए। हजार काम करने पड़ेंगे। और शायद उनका करना जरूरी भी है। पर होशपूर्वक करना जरूरी है। धीरे-धीरे तुम पाओगे कि यह जीवन जीवन न रहा, बिलकुल नाटक हो गया, तुम अभिनेता हो गए।
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अभिनेता होने का अर्थ है कि तुम जो कर रहे हो, उससे तुम्हारी एक बड़ी दूरी हो गई। जैसे कि कोई राम का अभिनय करता है रामलीला में, तो अभिनय तो पूरा करता है, राम से बेहतर करता है; क्योंकि राम को कोई रिहर्सल का मौका न मिला होगा। पहली दफ करना पड़ा था, उसके पहले कोई किया न था कभी। तो जो कई दफे कर चुका है, और बहुत बार तैयारी कर चुका है, वह राम से बेहतर करेगा। 
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रोएगा जब सीता चोरी जाएगी। वृक्षों से पूछेगा, "मेरी सीता कहां है'? आंख से आंसुओं की धारें बहेंगी। और फिर भी भीतर पार रहेगा। भीतर जानता है कि कुछ लेना-देना नहीं है। मंच के पीछे उतर गए, खत्म हो गई बात। मंच के पीछे राम और रावण साथ बैठकर चाय पीते हैं, मंच के बाहर धनुष-बाण लेकर खड़े हो जाते हैं। मंच पर दुश्मनी है; मंच के पार कैसी दुश्मनी !
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मैं तुमसे कहता हूं कि असली राम की भी यही अवस्था थी। इसलिए तो हम उनके जीवन को रामलीला कहते हैं--लीला ! वह नाटक ही था। कृष्णलीला ! वह नाटक ही था। असली राम के लिए भी नाटक ही था।
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नाटक का अर्थ होता है: जो तुम कर रहे हो, उसके साथ तादात्म्य नहीं है; उसके साथ एक नहीं हो गए हो; दूर खड़े हो; हजारों मील का फासला है तुम्हारे कृत्य में और तुम में। तुम कर्ता नहीं हो, साक्षी हो। नाटक का इतना ही अर्थ है: तुम देखने वाले हो। वे जो मंच के सामने बैठे हुए दर्शक हैं, उनमें कहीं तुम भी छिपे बैठे हो; मंच पर काम भी कर रहे हो और दर्शकों में छिपे भी बैठे हो, वहां से देख भी रहे हो। भीतर बैठकर तुम देख रहे हो जो हो रहा है, खो नहीं गए हो, भूल नहीं गए हो। यह भ्रांति तुम्हें नहीं हो गई है कि मैं कर्ता हूं। तुम जानते हो: एक नाटक है, उसे तुम पूरा कर रहे हो।
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तो मैं तुमसे न कहूंगा कि भागो। भागकर कहां जाओगे? मैं तुमसे यह कहुंगा कि भागना भी नाटक है। जहां तुम जाओगे, वहां भी नाटक है। तुम संन्यासी भी हो जाओ, तो भी मैं तुमसे कहूंगा: संन्यास भी नाटक है, अभिनय है। वस्त्र ऊपर ही ओढ़ना--आत्मा पर न पड़ जाए। यह रंग ऊपर ही ऊपर रहे, भीतर ना हो जाएं। भीतर तो तुम पार ही रहना। सफेद कपड़े पहनो कि गेरुआ पहनो कि काले पहनो, वस्त्र बाहर ही रहें, भीतर ना आ जाएं। तुम्हारी आत्मा निर्वस्त्र रहे, नग्न रहे। तुम्हारे चैतन्य पर कोई आवरण न हो। वहां तो तुम मुक्त ही रहो--सब वस्त्रों से, सब आकारों से।
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तुम्हारा कोई नाम-धाम है, उसे तुम छोड़कर भाग आओगे - मैं तुम्हें एक नया नाम दे दूंगा, उस नाम से भी दूरी रहे, उस नाम से भी तादात्म्य मत कर लेना। पुराना नाम भी तुम्हारा नहीं था, यह भी तुम्हारा नहीं है--तुम अनाम हो। पुराने से छुड़ाया, क्योंकि उससे तुम्हारे एक होने की आदत बन गई थी; नया दिया, इसलिए नहीं कि अब इसे तुम आदत बना लो, अन्यथा यह भी व्यर्थ हो जाएगा।
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अपने को दूर रखने की कला संन्यास है।
अभिनेता होने की कला संन्यास है।
जहां तुम कर्ता हुए, वहीं गृहस्थ हो गए।
जहां तुम द्रष्टा रहे, वहीं संन्यस्त हो गए।
तो कहीं से भागना नहीं है।
कहीं जाना नहीं है।
जहां हो वहीं जागना है।
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पीनेवालों में पीनेवाले भी बन गए, और दामन भी तर न हो। पियक्कड़ों में पियक्कड़ जैसे हो गए, लेकिन बेहोशी न पकड़े, दाग न लगे, जागरण बना रहे। तो संसार में जो चल रहा है--घर है, गृहस्थी है, बच्चे हैं, पत्नी है, पति है--ठीक है। भागकर भी क्या होगा? कहां जाओगे? जहां जाओगे, वहीं संसार है। फिर तुम अगर बिना बदले वहां जाओगे, तो तुम वहीं संसार खड़ा कर लोगे।
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संसार से भागने को एक ही रास्ता है, वह जागना है। तो जहां हो, वहीं जाग जाओ। और इस तरह करने लगो जैसे यह सब नाटक है। अगर कोई व्यक्ति इतनी ही याद रख सके कि सब नाटक है, तो और कुछ करने को न बचता। 
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फिर कोई फर्क नहीं पड़ता, घर में कि बाहर , घर में कि कैद में। तबीयत अगर आजाद रहे। और तबीयत की आजादी क्या है? साक्षी-भाव तबीयत की आजादी है। साक्षी पर कोई बंधन नहीं है।

भक्ति सूत्र (नारद)~ओशो

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