रविवार, 10 मार्च 2019

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🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*जे नांही सो देखिये, सूता सपने माँहि ।*
*दादू झूठा ह्वै गया, जागे तो कुछ नांहि ॥*
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com

निश्चित जानने का अर्थ है परमहंस रामकृष्ण की भांति जानना। निश्चित जानने का अर्थ है—विश्वास नहीं; अनुभव से आती है जो श्रद्धा, वही।
और जिसने विश्वास बना लिया, उसके भीतर श्रद्धा पैदा होने में बाधा पड़ जाती है। इसलिए उधार को तो काटो। बासे को तो हटाओ। पराये को तो त्यागो। कोई चिंता न करें। अगर सारे विश्वास हाथ से छूट जायें तो घबड़ाओ नहीं, क्योंकि उनके हाथ में होने से भी कुछ लाभ नहीं है। जाने दें। उस शून्य में खड़े हो जाएं जहां कोई विश्वास नहीं होता, कोई विचार नहीं होता। और वहीं से बजेगी धुन। वहीं से उठेगा एक नया स्वर। उसी शून्य से व्याप्त होता है कुछ अनुभव जो घेर लेता है। उसी अनुभव में जाना जाता है।
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आत्मा ब्रह्मेति निश्चित्य,
आत्मा ब्रह्म है, ऐसा उस अनुभव में जाना जाता है जहां सीमाएं गिर जाती हैं, असीम और स्वयं के बीच कोई भेद—रेखा नहीं रह जाती।
आत्मा ब्रह्म है, इसका अर्थ हुआ : बूंद सागर है। लेकिन इसे बूंद कैसे जानेगी?
बूंद गिरे नहीं तो जान सकेगी?
बूंद सागर में गिरे तो ही जानेगी। बूंद कितनी ही पंडित हो जाये, महापंडित हो जाये; लेकिन जिस बूंद ने सागर में गिर कर नहीं देखा, उसे कुछ पता नहीं चलेगा कि बूंद सागर है। बूंद तो जब मिटती है तभी पता चलता है कि सागर है।
मिटते हैं तभी ब्रह्म का पता चलता है। तिरोहित हो जाते हैं, तो ही ब्रह्म मौजूद होता है। गैर—मौजूदगी उसकी मौजूदगी है। स्वयं की मौजूदगी उसकी गैर—मौजूदगी है। होने में ही ब्रह्म 'नहीं' हो गया है, बिखरते ही पुन: हो जायेगा।
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*आत्मा ब्रह्म है, ऐसा निश्चित रूप से जिसने जान लिया।*
इस निश्चित रूप से जानने के लिए शास्त्र में न जाएं, शून्य में जाएं। शब्द में न जाएं, निःशब्द में उतरें। विचारों के तर्कजाल में न उलझें। मौन ही द्वार है। चुप्पी साधें, घड़ी दो घड़ी को रोज बिलकुल चुप हो जाएं।
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जब मन में कोई भी बोलने वाला न बचेगा, तब जो बोलेगा वही ब्रह्म है। जब अपने भीतर पाएंगे सन्नाटा ही सन्नाटा है, कोई पारावार नहीं है सन्नाटे का, कहीं शुरू नहीं होता, कहीं अंत नहीं होता—सन्नाटा ही सन्नाटा है, उसी सन्नाटे में पहली दफे प्रभु की पगध्वनि सुनाई पड़ेगी, पहली दफा उसका स्पर्श अनुभव करेंगे। वह पास से भी पास है। जब तक विचार से भरे हैं, वह दूर से भी दूर।
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उपनिषद कहते हैं : परमात्मा दूर से भी दूर और पास से भी पास। दूर से भी दूर, अगर विचार से भरे हैं। क्योंकि विचार आंखों को ढांक लेते हैं। जैसे दर्पण पर धूल जम जाये और दर्पण पर कोई प्रतिबिंब न बने। या जैसे झील में बहुत लहरें हो जायें और चांद की झलक न बने। ऐसा जब विचार से भरे हैं तो भीतर 'जो है' उसका प्रतिबिंब नहीं बनता।
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निश्चित जानने का अर्थ है, इतने शांत हो गये, दर्पण बन गये, झील मौन हो गयी, विचार सो गये, धूल हट गयी—तो जो है, उसका दर्पण में चित्र बनने लगा। वही है निश्चित जानना—जब प्रतिबिंब बनता है और उस प्रतिबिंब में जानते हैं बूंद सागर है।

*आत्मा ब्रह्मेति निश्चित्य भावाभावौ च कल्पितौ।*
उस क्षण यह भी पता चलेगा कि भाव और अभाव कल्पनाएं थीं। कुछ सोचा था है, कुछ सोचा था नहीं है—दोनों झूठ थे। जो है उसका तो पता ही न था। मैं ही झूठ था, तो जो मैंने सोचा कि है, वह भी झूठ था; जो मैंने सोचा नहीं है, वह भी झूठ था।
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ऐसा समझें कि एक रात सपना देखा। सपने में देखा कि सम्राट हो गये। बड़ा साम्राज्य है, बड़े महल हैं, स्वर्णों के अंबार हैं। और दूसरी रात सपना देखा कि भिखारी हो गये, सब गंवा बैठे, राज्य खो गया, सब हार गये, जंगल—जंगल भटकने लगे, भूखे —प्यासे।
एक रात सपना देखा राज्य है, एक रात सपना देखा राज्य नहीं है—क्या दोनों सपनों में कुछ भी भेद है ? दोनों कल्पनाएं हैं। भाव भी कल्पना है, अभाव भी कल्पना है। और जो है वह दिखाई ही न पड़ा। जिस रात सपना देखा सम्राट होने का, सपना तो झूठा था; लेकिन जो देख रहा था सपना, वह सच है। दूसरी रात सपना देखा भिखारी होने का। सपना तो फिर भी झूठा था, जो दिखाई पड रहा था वह तो झूठा था, लेकिन जिसने देखा, वह अब भी सच है। साम्राज्य देखा कि भिखमंगापन, देखनेवाला दोनों हालत में सच है। *जो दिखाई पड़ा— भाव और अभाव—वे दोनों तो कल्पित हैं। सिर्फ द्रष्टा सच है, सिर्फ साक्षी सच है। और सब सपना है।*

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