मंगलवार, 12 मार्च 2019

परिचय का अंग २८८/२९२

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ Tapasvi Ram Gopal
(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)
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संतप्रवर महर्षि श्रीदादूदयाल जी महाराज बता रहे हैं कि ::
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दादू दृष्टैं दृष्टि समाइले, सुरतैं सुरति समाय ।
समझैं समझ समाइले, लै सौं लै ले लाय ॥२८८॥
दादू भावैं भाव समाइ ले, भक्तैं भक्ति समान ।
प्रेमैं प्रेम समाइ ले, प्रीतैं प्रीति रस पान ॥२८९॥
दादू सुरतैं सुरति समाइ रहु, अरु बैनहुँ सौं बैन ।
मन ही सौं मन लाइ रहु, अरु नैनऊँ सौं नैन ॥२९०॥
विषयाकार वृत्ति में ब्रह्म में लय करो । सांसारिक वृत्ति को, वैराग्यादि साधनों से सच्चिदानंदमय बनाओ । शरीराध्यास त्याग कर सगुणा नवधाभक्ति को निर्गुणभक्ति में परिणत करो । संसार के अनुराग को छोड़कर प्रभु प्रेम द्वारा पराभक्ति का अभ्यास करो । पराभक्ति से परमानन्द का अनुभव करो । वाणी को भगवद्यशोगान द्वारा परमेश्वर में लीन करो । व्यष्टि मन को समष्टि मन में और व्यष्टि नेत्र को समष्टि नेत्र में लीन करो ।
इस प्रकार, लयसमाधि द्वारा, जहाँ ब्रह्म की स्थिति है वही चिदाभास को त्याकर अधिष्ठानस्वरूप ब्रह्म में लीन करो ।
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जहाँ राम तहाँ मन गया, मन तहाँ नैना जाय ।
जहाँ नैना तहाँ आतमा, दादू सहज समाय ॥२९१॥
लय समाधि द्वारा, जहाँ ब्रह्म की स्थिति है वही चिदाभास को त्याग कर अधिष्ठानस्वरुप ब्रह्म में लीन करो । जीवन्मुक्तिविवेक ग्रन्थ में लिखा है - “चित की एकाग्रता से उत्पन ज्ञान के साधन ध्यान को यथावत् बतलाता है । सम्भव क्रम से विपरीत क्रम द्वारा समग्र विकृति को ब्रह्म में लीन कर - अवशिष्ट चिदानन्द ब्रह्म का चिन्तन करो ।”
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प्राणन खेलै प्राण सौं, मनन खेलै मन ।
शब्दन खेलै शब्द सौं, दादू राम रतन ॥२९२॥
निर्विकल्प समाधि में चक्षुरादि इन्द्रियों के देवता ब्रह्म में लीन हो जाते हैं । अतः इन्द्रियाँ भी स्वस्व-व्यापाररहित होकर ब्रह्मरूप हो जाती हैं । प्राण के व्यापार से ही सब इन्द्रियों का व्यापार चलता है, अतः इन्द्रियों का प्राण नाम से भी शास्त्र में व्यपदेश किया गया है । प्राण और मन का व्यापार एक साथ होने से प्राण निग्रह से मनोनिग्रह भी हो जाता है ।
वहाँ कोई शंका न करे - प्राण और मन का व्यापार एक साथ नहीं हो सकता, क्योंकि सुषुप्ति अवस्था में प्राण का व्यापार तो निरन्तर चलता रहता है, परन्तु मन का व्यापार उस समय नहीं होता? इस शंका का उत्तर है - उस अवस्था में मन का सुषुम्ना नाड़ी में लय हो जाने से मन का अभाव हो जाता है । इसी अभिप्राय से श्रीदयालुजी महाराज ने कहा है –
प्राण न खेले प्राण सौं..............जोति न खेलै जोति ।
ऐसा मनुष्य साक्षाद् ब्रह्म हो जाता है । योगप्रदिपग्रन्थ में लिखा है -
“सूर्य और चन्द्र नाड़ी से तथा संकल्प विकल्प से रहित मन ‘ब्रह्म’ कहलाता है । जहां वायु का भी सञ्चार नहीं होता । यों, क्रमशः अभ्यास करते करते मन अनायास ही उन्मनी भाव को प्राप्त हो जाता है । जहाँ प्राणवायु और मन मर जाते हैं, अर्थात् जहां इस दोनों का व्यापार नहीं होता, वह ‘सहजस्थान’ कहलाता है । वह सूक्ष्म अजर तथा अमर है ।
जहाँ मन शरीरादि व्यापार, श्वासप्रश्वासक्रिया तथा आना जाना आदि सर्व व्यवहार से अतीत हो जाता है तो योगिजन उस स्थिति को ही निराधार, निराकार, सर्वाधार, तथा महोदय की स्थिति कहते हैं ।
(क्रमशः)

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