बुधवार, 13 मार्च 2019

परिचय का अंग २९३/२९७

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ Tapasvi Ram Gopal
(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)
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संतप्रवर महर्षि श्रीदादूदयाल जी महाराज बता रहे हैं कि ::
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चित्तन खेलै चित्त सौं, बैनन खेलै बैन ।
नैनन खेलै नैन सौं, दादू प्रकट ऐन ॥२९३॥
पाकन खेलै पाक सौं, सारन खेलै सार ।
खूबन खेलै खूब सौं, दादू अंग अपार ॥२९४॥
नूर न खेलै नूर सौं, तेज न खेलै तेज ।
ज्योतिन खेलै ज्योति सौं, दादू एकै सेज ॥२९५॥
स्मृति में भी लिखा है-
“जिसमें हाथ-पैर, नेत्र, वाणी की चपलता नहीं रहती, वह यति ब्रहस्वरूप हो जाता है ।” शिष्टाचार का भी यही लक्षण है । इसी अभिप्राय से श्रीदादूजी महाराज ने कहा है-
नैन न खेलै नैन । इन साखीवचनों से महाराज ने निर्विकल्प समाधि का वर्णन किया है ।
जीवन्मुक्तविवेक में लिखा है-
“अजिव्ह, षण्डक, पंगु, अन्धा, बहरा और मुग्ध ये प्रकार के योगी निःसन्देह मुक्त हो जाते हैं । इनके लक्षण उसी ग्रन्थ में लिखे हैं । जैसे ----”
“जो भोजन करते समय ‘यह अच्छा है, यह नहीं-’ ऐसा नहीं कहता वह ‘अजिव्ह’ कहलाता है । अर्थात् वह भोजन में अनासक्त ही रहता है ।”
जो आज पैदा होने वाली कन्या को तथा सोलह वर्ष वाली युवति को एवं सौ वर्ष वाली वृद्धा नारी को देखकर कोई विकारभाव मन में नहीं लाता वह ‘षण्डक’ कहलाता है ।
जो यति भिक्षा तथा शौचादि क्रिया के लिये ही बाहर जाता है और एक योजन से अधिक नहीं चलता वह ‘पंगु’ कहलाता है ।
जो चलते-चलते, उठते-बैठते चार हाथ से आगे नहीं देखता, वह योगी ‘अंध’ कहलाता है ।
जो दूसरों के लिये हितकारक, थोड़े मधुर और शोकनाशक वचन बोलता है तथा दूसरों की निरर्थक बातें सुनकर भी नहीं सुनता वह ‘वधिर’ ‘बहरा’ कहलाता है ।
जो योगी, इन्द्रियों में विकृति न होने पर भी तथा सर्वथा समर्थ होने पर भी विषयों के कारण अपने मन को विचलित नहीं होने देता वह ‘मुग्ध’ कहलाता है ।
जो निन्दा-स्तुति से दूर रहता है, मर्मवेधक वाणी का प्रयोग नहीं करता, अधिक नहीं बोलता वह सर्वथा समभाव वाला कहलाता है ।
जो किसी स्त्री से सम्भाषण नहीं करता, पहले देखी हुई को याद नहीं करता, उनकी बातों में रस नहीं लेता, किसी चित्रलिखित स्त्री को भी नहीं देखता, वह ‘वह योगी’ कहलाता है ॥२९५॥

पंच पदारथ मन रतन, पवना माणिक होइ ।
आतम हीरा सुरति सौं, मनसा मोती पोइ ॥२९६॥
अजब अनूपम हार है, सांई सरीषा सोइ ।
दादू आतम राम गल, जहाँ न देखे कोइ ॥२९७॥
लौकिक व्यवहार में सुवर्ण, रजत, प्रवाल, नीलमणि एवं मरकतमणि - ये पाँच द्रव्य विनिमय की वस्तुएँ मानी जाती है, अध्यात्मपक्ष में मन रत्न है, प्राण माणिक्य है, बुद्धि मोती है, जीवात्मा हीरामणि है । इन पाँचों पदार्थों से माला बनाकर, प्रभु के हृदय में इस माला को पहना दो । क्योंकि वहाँ इस माला को कोई देख भी नहीं सकता । तथा उसके अपहरण आदि का भी कोई भय नहीं रहता । ऐसी अद्भुतमाला भगवान् के लिये समर्पित करने वाला साधक भगवन्मय हो जाता है ।
अर्थात् सम्पूर्ण ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों और मन को प्रत्याहार द्वारा स्व स्व विषयों से हटाकर शुद्ध साक्षिस्वरूप ब्रह्म में तदाकार वृत्ति से निर्विकल्प समाधि में स्थापित कर लेता है । वहाँ कामादि चोरों के द्वारा अपहरण का भय भी नहीं रहता । गीता में कृष्ण कहते हैं -
“जिन की बुद्धि और मन सच्चिदानन्द परमात्मा में तद्रूप हो कर निरन्तर एकीभाव से स्थित है, ऐसे पुरुष ज्ञान द्वारा निष्पाप होकर परम गति को प्राप्त हो जाते हैं । जहाँ से कभी पुनरागमन नहीं होता ।”
“अपना मन मुझ में लगा दो । मेरे भक्त होकर मुझे ही नमस्कार करो । मेरे लिये ही यज्ञ करो । यों, साधन करने वाला मत्परायण हो अन्त में मुझ को प्राप्त कर ही लेता है ॥२९६-२९७॥”
(क्रमशः)

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