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॥ श्री दादूदयालवे नमः ॥
स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - *सुन्दर पदावली*
साभार ~ महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य ~ श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*= १६. राग सोरठ (१०/१)=*
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*मेरे, सतगुरु बडे सयाने हो ।*
*लोक बेद मरजाद उलँघिकैं,*
*गये गगन के थांने हो ॥(टेक)*
*अगम ठौर कै आसन बैठै,*
*बेहद सौं मन मांते हो ।*
*सांचि सिंगार किया उर अंतर,*
*भेष भरम सब भांने हो ॥१॥*
*तिमिर मिट्यौ जब ब्रह्म प्रकाशे,*
*कैसैं रहत छिपांने हो ।*
*शिव बिंरचि सनकादिक नारद,*
*सेस नाग पुनि जांने हो ॥२॥*
मेरे सद्गुरु अतिशय प्रवीण(कुशल) हैं । वे लौकिक एवं वैदिक शास्त्रों की उपेक्षा कर गगन(साधना के सर्वोच्च स्थान) में पहुँच गये हैं ॥टेक॥
वे साधारण साधक के लिये अगम्य पर जा बैठे हैं । वहाँ उनने उस असीम(सीमा रहित = अनन्त) तत्त्व की उपासना में अपना मन स्थिर कर लिया है । अब उनने सभी भेषों = सम्प्रदायों की वेषभूषा त्याग कर अपने शरीर का यथार्थ श्रृंगार कर लिया है ॥१॥
अब मेरे हृदय में ब्रह्म का प्रकाश फैल गया है, अब वह मुझसे कैसे छिप सकेगा । अब तक उन को कुछ ही साधक प्राप्त कर पाये हैं; जैसे – शिव, ब्रह्मा, सनकादि मुनि, नारद तथा शेष नाग ॥२॥
(क्रमशः)
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