रविवार, 3 मार्च 2019

परिचय का अंग २५३/५७


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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ Tapasvi Ram Gopal
(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)
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संतप्रवर महर्षि श्रीदादूदयाल जी महाराज बता रहे हैं कि ::
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अविनाशी अपरंपरा, वार पार नहिं छेव ।
सो तूं दादू देखि ले, उर अंतर कर सेव ॥२५३॥
दादू भीतर पैसि कर, घट के जड़ै कपाट ।
सांई की सेवा करै, दादू अविगत घाट ॥२५४॥
घट परचै सेवा करै, प्रत्यक्ष देखै देव।
अविनाशी दर्शन करै, दादू पूरी सेव ॥२५५॥
हे साधक ! तूं अपने शरीर में ही अन्तर्मुख वृत्ति द्वारा प्रत्याहार से इन्द्रिय द्वारों को रोककर इन्द्रियातीत मन से भी न ज्ञात होने वाले अविनाशी ब्रह्म को निर्विकल्प समाधिप्रदेश में देख । यह भक्ति की पूर्ण अवस्था है । उस अवस्था में सेवा भी पूर्ण होगी ।
भागवत में कहा है :: जब भगवान् पद्मनाभ के चरणारविन्दों को प्राप्त करने की इच्छा से तीव्र भक्ति की जाती है, तब वह भक्ति ही अग्नि की तरह गुण-कर्मो से उत्पन्न समग्र चित्तमलों को जला डालती है । और तब चित्त के शुद्ध होने से भगवत साक्षात्कार होता है । जैसे नेत्रदोष दूर होने पर सूर्य-प्रकाश की प्रत्यक्ष अनुभूति स्वयं होने लगती है ।
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भ्रम विध्वंस
पूजणहारे ! पास हैं, देही माँहै देव ।
दादू ताकौ छाड कर, बाहर माँडी सेव ॥२५६॥
संतप्रवर महर्षि श्रीदादू दयाल जी महाराज बतारहे हैं कि :: मेरे हृदय में ही सच्चे स्वामी भगवान् विराजमान हैं । वे वास्तविक प्रेमसुख और परमार्थ का सच्चा धन देने वाले भी हैं । जगत् के पदार्थ अनित्य हैं और वे प्रभु नित्य हैं । आह ! मैंने उनको छोड़ दिया और तुच्छ काम भोगों का सेवन किया, जो मेरी एक भी कामना पूर्ण न कर पाये अपितु दु:खमय आधि-व्याधि, शोक-मोह के ही देने वाले रहे । यह तो मेरी मूर्खता की पराकाष्ठा है कि मैं फिर भी उन्हीं(कामभोगों) का सेवन करना चाहता हूँ ।
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परिचै
दादू रमता राम सौं, खेले अंतर माँहि ।
उलट समाना आप मैं, सो सुख कतहूँ नाँहि ॥२५७॥
सब में रमण करने से राम ही ब्रह्म है । श्रुति भी कहती है -
“योगी लोग जिसमें रमण करते हैं उस नित्य सच्चिदानन्द ब्रह्म को ही ‘राम’ पद से कहा जाता है ।”
प्राण, मन, इन्द्रियों को प्रत्याहार द्वारा विषयों से हटाकर स्वान्तःस्थ भगवान् का स्मरण करने वाले भक्त का सुख वाणी से वर्णित नहीं किया जा सकता । इसलिये स्वान्त:करणस्थ ब्रह्म का ही ध्यान करना चाहिये ।
भागवत में लिखा है -
जो प्रेमी भक्त अपने प्रियतम भगवान् के चरणकमलों का अन्य प्रवृत्तियों को छोड़कर अनन्यभाव से भजन करते हैं, पहले तो उनसे कोई पापकर्म होते ही नहीं, यदि कभी किसी प्रकार से ऐसा कुछ हो भी जाय तो उसके हृदय में बैठे परम पुरुष भगवान् सब पापों को धो डालते हैं उसके हृदय को शुद्ध कर देते हैं । भागवत में कहा गया है ::
मुमुक्षु पुरुष कर्ममय पाशों से मुक्त होने के लिये जिस भगवान् का भजन करते हैं, हम भी उसी भगवान् के चरणारविन्दों में बुद्धि, मन, इन्द्रिय, प्राण और वाणी से प्रणाम करते हैं ।
(क्रमशः)

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