शनिवार, 2 मार्च 2019

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🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू तन मन मेरा पीव सौं, एक सेज सुख सोइ ।*
*गहिला लोग न जाणही, पच पच आपा खोइ ॥*
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साभार ~ Raj Gupt

पहला प्रश्न : भक्त जब भगवान को मिलता है, तब उसे पुलक और आनंद का अनुभव होता है। क्या भगवान को भी उस क्षण वैसी ही पुलक और आनंद का अनुभव होता है?
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भगवान कोई व्यक्ति नहीं जिसको भक्त जैसी पुलक और आनंद का अनुभव हो सके। भगवान तो पूरा ही अस्तित्व है। इसलिए पुलक और आनंद की घटना तो घटती है, लेकिन वहां कोई अनुभव करने वाला नहीं है। जैसे भक्त के छोटे—से हृदय में आनंद गज जाता है, वैसा कोई हृदय परमात्मा का नहीं है, जहां आनंद गंज जाए। 
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परमात्मा तो पूरा अस्तित्व है, इसलिए पूरा अस्तित्व ही पुलक से भर जाता है। इतना फर्क है। पुलक तो घटेगी ही, क्योंकि भटका हुआ घर लौट आया। दूर गया पास आ गया। खो गया था, वापस मिल गया। अस्तित्व की तरफ जिसकी पीठ थी, उसने मुंह कर लिया। तो आनंद की घटना तो घटेगी ही। लेकिन भगवान कोई व्यक्ति नहीं है, वहां कोई व्यक्ति के भीतर छिपा हुआ हृदय नहीं है। इसलिए जैसा अनुभव भक्त को होगा, वैसा कोई अनुभव करने वाला भगवान में नहीं है। वह तो परम शून्यता है।
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पुलक होगी; वह पुलक बादलों में सुनी जाएगी; वह पुलक नदियों में गूंजेगी; वह पुलक फूलों से खिलेगी; वह पुलक चांद—तारों में ज्योति देगी। लेकिन कोई हृदय नहीं है, जो अनुभव करेगा। या तुम ऐसा कहो—वह भी कहना ठीक है—कि हृदय ही हृदय है; सारा अस्तित्व उसका हृदय है। सारा अस्तित्व एक सिहरन से, एक आनंद की मधुर घड़ी से भर जाएगा।
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इसे भक्त ही जान पाएगा; तुम न पहचान पाओगे। तुम्हें भक्त का आनंद तो दिखाई पड़ेगा, क्योंकि भक्त तुम्हारे जैसा ही व्यक्ति है। उससे तुम्हारा ‘थोड़ा तालमेल है। वह कितना ही भिन्न हो गया हो, उसकी यात्रा बदल गई हो, उसने परमात्मा की तरफ मुंह कर लिया हो, तुमने पीठ कर रखी है, तो भी वह तुम्हारे जैसा है, व्यक्ति है। उसके हृदय में कुछ घटेगा; आंसू बहेंगे, तो तुम आंसुओ को पहचान सकते हो। वह नाचने लगेगा, तो तुम नाच को समझ सकते हो। उसके चेहरे पर अहोभाव की छाया पड़ेगी, तो पूरा न समझ सको, तो भी थोड़ा तो समझ ही लोगे। वह भाषा तुमसे परिचित है। लेकिन परमात्मा में जो पुलक घट रही है, वह तुम न देख पाओगे; वह तुम न समझ पाओगे।
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इसलिए तो बहुत—सी कथाएं हैं, जो कथाएं जैसी मालूम होने लगी है; वे सत्य घटनाएं है। कि बुद्ध को परम ज्ञान हुआ और वृक्षों में फूल खिल गए, बिना ऋतु के। ये फूल दूसरों ने देखे हों, यह संदिग्ध है। ये फूल बुद्ध ने ही देखे होंगे। ये फूल साधारण फूल न थे, जो रोज ऋतु में खिलते हैं और गिरते हैं। ये तो वृक्ष के अंतर्भाव के फूल थे। इन्हें तुम बाजार में न बेच सकते थे, इन्हें तुम तोड़ भी न सकते थे, इन्हें तुम देख भी न सकते थे। ये तो अदृश्य के फूल थे, जो बुद्ध को दिखाई पड़े होंगे।
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कहते हैं, मोहम्मद को जब ज्ञान हुआ, तो रेगिस्तान की तपती दुपहरियों में बादल उन्हें छाया देने लगे। मगर ये बादल किसी और को दिखाई न पड़े होंगे। ये बादल जो छतरियां बन गए और मोहम्मद के ऊपर मंडराने लगे, यह मोहम्मद ने ही खबर की होगी औरों को। तुम्हारी आंखें इतनी सूक्ष्म घटना को न देख पाएंगी। वस्तुत: कोई बादल बने भी, यह भी जरूरी नहीं है। लेकिन छाया मोहम्मद को मिलने लगी, यह पक्का है। तपती दुपहरी में भी सूरज जलाता नहीं, भयंकर रेगिस्तान में भी कंठ में प्यास नहीं जगती, ऐसी शीतलता मोहम्मद को मिलने लगी। एक संवाद शुरू हो गया अस्तित्व के साथ।
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निश्चित ही, जब तुम प्यार से भरोगे अस्तित्व के प्रति, तो अस्तित्व भी अपने प्यार को तुम्हारी तरफ लुटाका। अस्तित्व जड़ नहीं है, यही तो मतलब है कहने का कि अस्तित्व परमात्मा है। अगर जड़ होता, तो तुम रोओ, तो पत्थर रोएगा नहीं; उसमें कोई संवेदना नहीं है। तुम हंसो, तो पत्थर हंसेगा नहीं। पत्थर से कोई प्रत्युत्तर न मिलेगा। यही तो मतलब है पत्थर होने का।
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तो हम कभी कहते हैं कि उस आदमी का हृदय पाषाण है। उसका क्या मतलब होता है? इतना ही मतलब होता है। कहीं पाषाण के हृदय होते हैं! इतना ही मतलब होता है कि उसमें से प्रतिसवेदन नहीं उठता। वह तुम्हें दुखी देखकर दुखी न होगा। तुम्हारी गीली आंखें उसके हृदय को गीला न करेंगी। तुम्हारा नाच उसे छुएगा नहीं। तुम्हारे भाव तुम्हारे ही रहेंगे; वह कोई प्रत्युत्तर न देगा। उसका हृदय पाषाण है।
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इस अस्तित्व को परमात्मा कहने का अर्थ है कि यहां पाषाण कुछ भी नहीं है। पाषाण झूठा शब्द है। यहां पत्थर भी आंदोलित होते हैं। क्योंकि सभी तरफ सचेतन, सभी तरफ चैतन्य का विस्तार है।
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तो प्रतिसंवेदना होगी। लेकिन इतनी सूक्ष्म है वह घटना कि भक्त ही जान पाएगा कि भगवान को क्या हो रहा है, साधारणजन न पहचान पाएंगे। क्योंकि वे करीब—करीब अंधे हैं, बहरे हैं। न तो उनके पास कान हैं उस अमृत—नाद को सुनने के, न उनके पास आंखें हैं उस अरूप को देखने की।
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इसलिए तुम्हें मीरा नाचती हुई दिखाई पड़ेगी और तुम्हें मीरा थोड़ी पागल भी मालूम पड़ेगी। क्योंकि जिसके साथ वह नाच रही है, वह तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता। मीरा तो अपने कृष्ण के साथ नाच रही है। वह कृष्ण कोई व्यक्ति नहीं है। हवाओं के झोंके में भी वही कृष्ण हैं; हवा छूती है मीरा को, तो कृष्ण के हाथ ही छूते हैं। और मैं तुमसे कहता हूं कि निश्चित जब तुम्हारे पास मीरा का हृदय होगा, तो हवा तुम्हें और ढंग से छुएगी। छूने—छूने में कितना फर्क है !
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वृक्षों में फूल तुम्हें भी खिलते हैं, तुम भी देख लेते हो उनके रंग—रूप को। मीरा भी देखती है, लेकिन वहां वृक्षों में उसका प्रेमी ही खिल रहा है। आषाढ़ आता है, मोर नाचते हैं। तुम भी देख लेते हो, पर मीरा के लिए उसका कृष्ण ही नाचता है। असल में मीरा के लिए सारा अस्तित्व कृष्ण—रूप हो गया.। इसलिए अब जो भी होता है, वह कृष्ण में ही हो रहा है। और पूरी भाषा बदल जाती है, पूरे अर्थ बदल जाते हैं।
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अगर मनोवैज्ञानिकों को कहो कि मीरा के पदों का विश्लेषण करो, तो तुम बहुत धक्का खाओगे। क्योंकि मनोवैज्ञानिक जो बातें कहेंगे, उनका तुम्हें भरोसा भी न आएगा। चाहे भरोसा न आए, लेकिन तुम्हारा भी भीतर भरोसा वही है।
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जब मीरा कृष्ण की बात कहती है और कहती है, सेज सजा ली है, फूल बिछा दिए हैं, अब तुम आओ। तो मनोवैज्ञानिक कहेगा, यह तो कुछ काम—दमन मालूम पड़ता है; यह तो सेक्स सप्रेशन है। यह तो कृष्ण में पति को ही खोज रही है। ऐसा लगता है, राणा से मन नहीं भर पाया। ऐसा लगता है, कुछ बात चूक गई; काम अतृप्त रह गया। वह जो शरीर की वासना थी, वह प्रकट नहीं हो पाई, वह दब गई। और अब वही शरीर की वासना नए भ्रम बन रही है। तो कृष्ण को पति मान रही है, सेज सजा रही है।
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यह सेज का सजाना और बुलाना, यह कामवासना मालूम पड़ेगी मनसविद को। वह तो मनोवैज्ञानिकों ने अभी मीरा पर कृपा नहीं की है। उनको मीरा का ज्यादा पता नहीं है, क्योंकि मनोविज्ञान का जन्म पश्चिम में हो रहा है। यहां भी मनोवैज्ञानिक हैं, लेकिन वे अधकचरे हैं और वे, पश्चिम में जो होता है, उनके पीछे चलते हैं। वे सीधे कुछ करते नहीं।
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लेकिन उन्होंने जीसस की काफी खोज—खबर ली है। और मीरा जैसी स्त्रियां पश्चिम में हुई हैं, उनकी उन्होंने काफी खोज—खबर ली है। संत थेरेसा हुई है पश्चिम में। मनोवैज्ञानिकों ने उसका विश्लेषण किया है। वह ठीक मीरा है पश्चिम की। और उसके प्रतीक तो सब कामवासना के हैं। करोगे भी क्या ! मनुष्य के पास जितने भी मधुर शब्द हैं, सभी कामवासना के हैं। जब वह परम मधुरिमा घटती है, तो कौन से शब्दों का उपयोग करोगे?
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दो ही तरह की भाषाएं हैं तुम्हारे पास। या तो बाजार की भाषा है, वह बहुत ही क्षुद्र है। उस भाषा में तो परमात्मा को पकड़ा नहीं जा सकता। और या फिर दो प्रेमियों की स्वात की भाषा है। वह जरा कम क्षुद्र है, लेकिन है तो क्षुद्र ही, क्योंकि वे प्रेमी भी बाजार के ही रहने वाले लोग हैं।
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और जब मीरा जैसी घटना घटती है या थेरेसा जैसी, तो वह क्या करे? भाषा कहां से लाए? तुम्हारे बाजार की भाषा का उपयोग करे, तो बिलकुल ही व्यर्थ मालूम होती है। क्या कहे कि परमात्मा के झोंके में लाखों रुपये आ गए ! क्या कहे कि पूरा रिजर्व बैंक उलटा दिया परमात्मा के झोंके में !
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वह भी भद्दा लगेगा; वह भी कुछ सार्थक न मालूम पड़ेगा। तुम उसे भी न पकड़ पाओगे। ज्यादा से ज्यादा इतना ही होगा कि इनकम टैक्स आफिसर मीरा के पीछे पड़ जाएंगे कि कहां हैं? वे करोड़ों रुपये कहां हैं?
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दूसरी भाषा प्रेम की है, जो प्रेमी एक—दूसरे से बोलते हैं। वह बड़ी निजी है। लेकिन उसमें कामवासना की धुन पकड़ में आती है। तड़पते हैं प्रेमी, राह देखते हैं, मिलन होता है, अहोभाव से भरते हैं ....
🙏🙏🙏भक्त और भगवान 
🙏🙏🙏🙏🎶🎶🎶ओशो

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