शुक्रवार, 1 मार्च 2019

= १६० =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*बावें देखि न दाहिने, तन मन सन्मुख राखि ।*
*दादू निर्मल तत्त्व गह, सत्य शब्द यहु साखि ॥*
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साभार ~ Dhaval Parmar

बुद्ध ने छह वर्ष तक पाने की कोशिश की। स्वाभाविक ! आदमी लोभ की दुनिया में जीता है। तो जिस तरह धन और पद को पाते थे, सोचा, इसी तरह मुक्ति को पा लेंगे ! छह वर्ष तक सतत चेष्टा की। सब किया जो लोगों ने कहा कि करो; जिनको तुम कह रहे हो संत। किसी ने मंत्र दिए, तो मंत्र दोहराए। किसी ने उपवास करवाया, तो उपवास किया। और किसी ने सिर के बल खड़े होने को कहा, तो सिर के बल खड़े रहे। तपश्चर्या, तो तपश्चर्या ! सुंदर देह थी, राजकुमार थे, सूख कर कांटा हो गए।
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एक मूढ़ ने बता दिया कि धीरे-धीरे भोजन को कम करो। इतना कम करो क्रमशः कि बस एक चावल का दाना ही भोजन रह जाए। इस तरह कम करते-करते-करते एक चावल का दाना रह जाए। फिर धीरे-धीरे बढ़ाना, दो चावल के दाने, तीन चावल के दाने...।
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जिस दिन एक चावल का दाना रह गया, बुद्ध इतने कमजोर हो गए कि निरंजना नदी को पार करते थे, पार न कर सके। मैं निरंजना को देखने गया था, सिर्फ इसीलिए कि कैसी नदी है जिसको बुद्ध पार न कर सके ! भवसागर पार कर गए और निरंजना पार न कर सके? देखा तो बहुत चौंका। नदी नहीं है, नाला है। गर्मी के दिन थे, बिलकुल सूखा था ! कोई भी पार कर जाए। छोटा बच्चा पार कर जाए। कोई तैरने वगैरह की भी जरूरत नहीं थी। घुटने-घुटने पानी भी नहीं था।
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ये बुद्ध क्यों पार नहीं कर सके? कमजोर इतने हो गए थे कि निरंजना के किनारे पर एक वृक्ष की जड़ को पकड़ कर किसी तरह अपने को अटकाए रहे। जब थोड़ी सी ताकत आई, तो किसी तरह सरक कर घाट पर चढ़े। उस घड़ी वृक्ष की जड़ को पकड़े हुए उन्हें यह खयाल आया कि यह मैंने क्या किया ! देह भी गंवा बैठा, आत्मा तो मिली नहीं। और मैंने यह कभी सोचा ही नहीं कि देह को गंवाने से आत्मा के मिलने का तर्क क्या है ! निरंजना नदी तो पार नहीं कर सकता हूं, यह छोटी सी नदी, तो यह जीवन का इतना बड़ा भवसागर कैसे पार करूंगा?
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यह घटना बड़ी क्रांतिकारी सिद्ध हुई। उन्होंने उसी क्षण, वह जो छह साल व्यर्थ की दौड़-धूप की थी, छोड़ दी। धन और पद की दौड़ तो पहले ही छोड़ चुके थे; उस संध्या मोक्ष की दौड़ भी छोड़ दी।
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यह घटना बहुत विचारणीय है। दौड़ ही न रही। उस सांझ जब वे सोए, पूर्णिमा की रात थी, और चित्त पहली दफा अनहद के विश्राम को उपलब्ध हुआ था। क्योंकि जहां दौड़ नहीं, वहां विश्राम है। चाहे शरीर से न भी दौड़ो, अगर मन से भी दौड़ रहे हो, तो भी तो थकान होती है। मन भी तो थकता है।
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अब कोई दौड़ ही न थी; कुछ पाना ही न था। सब व्यर्थ है, कुछ भी पाना नहीं है। जो है, जैसा है, उससे ही राजी हो रहे। इसको बुद्ध ने तथाता कहा है। जो है, जैसा है, ठीक है।
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उस संध्या तथाता के इस भाव में ही सोए। बाद में कहा कि वह पहली रात थी, जब सच में मैं सोया। विश्राम परिपूर्ण था, एक सपना भी न आया। क्योंकि जब चाह ही न रही, तो सपने कहां से आएं? सपने तो चाह की ही छाया है, जो नींद में पड़ती है। दिन में जो चाह है, रात वही सपना है।
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एक सपना नहीं। और सुबह जब आंख खुली, तो कहा बाद में, कि ऐसा विश्राम कभी पाया ही न था। ऐसी शांति छाई थी ! रोआं-रोआं विराम में था, विश्राम में था। न कुछ करना था; न कहीं जाना था; न कुछ पाना था। सब मोह छूट गए, संसार के भी और परलोक के भी। और तभी देखा कि रात का आखिरी तारा डूब रहा है। जैसे-जैसे वह तारा डूबा, वैसे-वैसे ही भीतर, अगर कोई कहीं धूमिल सी रेखा भी रह गई होगी लोभ की, वह भी विलुप्त हो गई। आखिरी तारे के डूबने के साथ ही बुद्ध को महापरिनिर्वाण उपलब्ध हुआ। अनहद में विश्राम पाया। गिरह हमारा सुन्न में ! शून्य में घर मिल गया।
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सवाल उठता है कि बुद्ध ने छह साल की तपश्चर्या के कारण बुद्धत्व पाया या तपश्चर्या को छोड़ने के कारण बुद्धत्व पाया? ढाई हजार वर्षों में बौद्ध विचारक इस पर मंत्रणा करते रहे हैं, विचारणा करते रहे हैं, विवाद करते रहे हैं। मेरे हिसाब में विवाद व्यर्थ है। दोनों ही बातें उपयोगी हैं। वह छह वर्ष जो तपश्चर्या की थी, उसका भी हाथ है। पाने में नहीं; पाया तो तपश्चर्या को छोड़ कर। लेकिन तपश्चर्या का हाथ है तपश्चर्या को छुड़ाने में !
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तपश्चर्या करते-करते एक बात दिखाई पड़ गई कि यह पागलपन है; इसमें कुछ सार नहीं। संसार तो पहले ही छूट चुका था, अब यह मोक्ष भी छूट गया। मोक्ष पाने की आकांक्षा भी छूट गई। लोभ की जो अंतिम रेखा रह गई थी, वह भी विलुप्त हो गई। तो तपश्चर्या ने इतना काम किया। जैसे एक कांटा गड़ जाता है, तो हम दूसरे कांटे से उसको निकाल लेते हैं। फिर दोनों कांटों को फेंक देते हैं। ऐसा नहीं है कि पहला कांटा फेंक दिया और दूसरे को सम्हाल कर उसके घाव में रख लिया कि इसकी बड़ी कृपा है ! किस शब्दों में इसका आभार करें !
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एक कांटे से दूसरा निकल गया, फिर दोनों हम फेंक देते हैं। ऐसे ही तपश्चर्या से, एक व्यर्थ बात मन में अटकी थी कि पाने से मिलेगा परमात्मा, वह बात निकल गई। परमात्मा तो मिला ही हुआ है। दौड़ खतम हुई, चाह मिटी, कि पाया। पाया तो सदा से था ही।
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अनहद में विसराम👣ओशो

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