शनिवार, 30 मार्च 2019

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🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू बेली आत्मा, सहज फूल फल होइ ।*
*सहज सहज सतगुरु कहै, बूझै बिरला कोइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ बेली का अंग)* 
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जीवन जैसा है, वैसी ही मृत्यु होगी। जो उस पार है, वैसा ही इस पार होना पड़ेगा। जैसे यहां हैं, वैसे ही वहां हो सकेंगे। क्योंकि एक सिलसिला है, एक तारतम्य है।
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ऐसा कभी न सोचें कि मृत्यु के इस पार तो अंधेरे में जीएंगे और मृत्यु के उस पार प्रकाश में। जो यहां नहीं हो सका, वह केवल शरीर छूट जाने से नहीं हो जायेगा। जो जैसा है, वैसा ही रहेगा। मृत्यु से कुछ भेद नहीं पड़ता है। आनंदित थे जीवन में, तो मृत्यु के पार भी आनंदित रहेंगे; दुखी थे तो मृत्यु सुख न दे पायेगी। अगर जीवन में नर्क में हैं तो जीवन के पार भी नर्क ही प्रतीक्षा करेगा। इसे ठीक से समझ लें।
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मनुष्य बहुत बेईमान है। टालने की बड़ी इच्छा होती है। वह सोचता है, कर लेंगे। मुक्त भी होना है तो मृत्यु के बाद, अभी तो कुछ जल्दी नहीं है। प्रभु स्मरण भी करना है तो कर लेंगे मरते समय, कर लेंगे तीर्थ—यात्रा, मरते समय सुन लेंगे पाठ। बुढ़ापे में संन्यास।
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कल पर छोड़ते हैं; आज तो जी लें उसी ढांचे में, जिसमें जीते रहे हैं। आज तो कर लें बुरा, कल अच्छा कर लेंगे। अच्छे को टालते हैं, बुरे को कभी नहीं टालते। तो बंधन तो आज, मुक्ति कल—ऐसा गणित है।
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जीवन में ही मुक्ति हो, तो ही मुक्ति होगी। जीते—जी जागेंगे, तो ही जागेंगे। सोचें, जीते—जी जो न जाग सका, वह मरने में कैसे जागेगा? मृत्यु तो जीवन का चरम निष्कर्ष है। मृत्यु तो कसौटी है। जीवन भर का सारा सार—संचित मृत्यु के क्षण में आंखों के सामने प्रगट हो जायेगा। मृत्यु तो निर्णायक है। वह तो सारे जीवन की कथा का सार—निचोड़ है।
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मृत्यु में जीवन समाप्त नहीं होता, सारे जीवन को इकट्ठा करके नई यात्रा पर निकल जाते हैं। अगर क्रोधित थे तो मृत्यु में भी क्रोध होगा। अगर दुखी थे तो दुख की घनी अमावस होगी। अगर जीवन का प्रत्येक पल प्रफुल्ल था, आनंदमग्न थे, नृत्य था, गीत था, संगीत था सुगंध थी—तो मृत्यु महोत्सव हो जायेगी।
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व्यक्ति जैसा जीता, वैसा ही मरता। अलग— अलग जीते ही नहीं, अलग— अलग मरते भी हैं। जीवन—शैली ही भिन्न नहीं होती, मृत्यु—शैली भी भिन्न होती है। न तो ठीक से जीते न ठीक से मरते। अंधे की तरह जीते हैं, अंधे की तरह मरते हैं।इसलिए मृत्यु का पूरा दर्शन नहीं हो पाता।
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मृत्यु का अनुभव सभी का अलग—अलग है। और जब तक मृत्यु मुक्ति जैसी अनुभव न हो, समझ लें जीवन व्यर्थ गया। जब तक मृत्यु प्रभु के द्वार पर खड़ा न कर दे, मृत्यु में प्रभु की भुजायें स्वागत करती हुई न मिलें, उसकी बांहें फैली हुई आलिंगन को तत्पर न हों—तब तक समझ लें कि जीवन व्यर्थ गया। मृत्यु ने प्रमाण—पत्र नहीं दिया। फिर आना पड़ेगा।
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मुक्त का अर्थ होता है : जो फिर न आयेगा, जो दुबारा न आयेगा। भगवान बुद्ध ने उसके लिए शब्द दिया है : 'अनागामिन', जो फिर नहीं आयेगा, जो दुबारा नहीं लौटेगा। मुक्त का अर्थ है, जिसने जीवन का पाठ सीख लिया; अब इस पाठशाला में दुबारा आने की जरूरत नहीं होगी।
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मृत्यु में अगर मुक्ति अनुभव हो जाये तो बस फिर कोई जन्म नहीं है। लेकिन मृत्यु में मुक्ति अनुभव कैसे होगी? जीवन में ही अनुभव नहीं हुई तो मृत्यु में कैसे अनुभव होगी? जब सब सुविधा थी, जब आंखें साबित थीं, हाथ—पैर स्वस्थ थे, मन में बल था, भीतर ऊर्जा थी, जब तरंग थी मौजूद; जब चढ़ सकते थे लहर पर और दूर के किनारों तक यात्रा कर सकते थे; जब पाल भर खोल देने की जरूरत थी और जीवन की हवायें दूर की यात्रा पर ले जातीं—तब इंच भर न हिले।
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तो मृत्यु के क्षण में जब सब शिथिल हो जायेगा, पाल फट जायेगा, हवायें सो जायेंगी, ऊर्जा खो जायेगी, सब तरफ गहन सन्नाटा होने लगेगा, थके—हारे गिरने लगेंगे श्मशान में—तब ! तब कैसे कर पाएंगे? तब बहुत मुश्किल हो जायेगा।

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