शनिवार, 30 मार्च 2019

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🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*मैं ही मेरे पोट सिर, मरिये ताके भार ।*
*दादू गुरु प्रसाद सौं, सिर तैं धरी उतार ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ जीवत मृतक का अंग)* 
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साभार ~ @Punjabhai Bharadiya

तुम यह छोटी-सी कहानी सुनो--
भोज में आए लोगों की सेवा-टहल करते हुए गांव के नाई छकौड़ी ने जब सुना कि इस बार तीर्थयात्रा में ठाकुर बारिस्टर सिंह क्रोध का त्याग कर आए हैं तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। मित्रों-मुसाहिबों से घिरे बैठे गर्वोन्नत ठाकुर साहब के पास पहुंचकर छकौड़ी ने अत्यंत विनम्रतापूर्वक कहाः मालिक, इस बार की तीर्थयात्रा में आप क्या त्याग कर आए हैं?
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क्रोध, छकौड़ी, हमने अब जीवनभर के लिए क्रोध त्याग दिया है। --सहजशांत वाणी में ठाकुर साहब ने कहा।
धन्य हो ! चारों धाम की यात्रा, चार गांव का भोज और क्रोध का त्यागी ! बड़े महात्मा हैं मालिक आप !--कहता हुआ छकौड़ी अपने काम में जा लगा।
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थोड़ी देर बाद वह फिर लौटा और ठाकुर साहब को भोज की सुव्यवस्था की जानकारी दी और निहायत मुलायमियत से बोलाः इस बार तीर्थों में हुजूर क्या छोड़ आए?
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ठाकुर साहब ने छकौड़ी की तरफ सीधी आंख देखते हुए सधी आवाज में जवाब दिया, क्रोध। हमने क्रोध छोड़ दिया है।'
"वाह' वाह मालिक ! कितना बड़ा त्याग किया है आपने ! धन्य हैं आप।' और वह फिर भोज-स्थल की तरफ चल दिया। कुछ क्षणों में छकौड़ी फिर लौटा और इधर-उधर की बातें करता हुआ ठाकुर साहब से बोला धीरे सेः माई-बाप, तीर्थों में इस बार क्या त्याग कर आए?
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नाई को घूरते हुए ठाकुर साहब बोले - अभी तुझे बताया है कि हम क्रोध छोड़ आए हैं।
"हओ मालिक । धन्य हो धन्य हो !'
थोड़ी देर बाद फिर छकौड़ी आया और चुपचाप ठाकुर साहब के पांव दबाने लगा। फिर उठा और उनके पांव छूता हुआ बोला - हुजूर, अब की तीर्थयात्रा में आपने कौन-सा त्याग किया है?
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इस बार ठाकुर साहब ने जैसे ही नाई का प्रश्न सुना कि उनकी आंखें लाल हो गईं, भौएं तिरछी हो गईं। कड़कदार आवाज में बोले - अबे नइए, दस बार तुझसे कहा है, हम क्रोध का त्याग कर आए हैं। तू बहरा है क्या?
"जी सरकार, क्रोध त्यागकर आपने बड़े भारी पुण्य का काम किया है। धन्य हैं आप !'
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ओंठों-ओंठों में मुस्कुराता हुआ छकौड़ी चला गया। अब की बार थोड़े अधिक विलंब से वह लौटा। ठाकुर साहब यार-दोस्तों के साथ बातों में मशगूल थे। चांदी के गिलास में ठाकुर साहब को पानी पेश करते हुए छकौड़ी ने कहा - हुजूर. . . ।'
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छकौड़ी का स्वर सुनते ही ठाकुर साहब की आंखें कपाल से जा लगीं। भौंचक छकौड़ी थोड़ा पीछे खिसका। ठाकुर साहब ने अपना जूता उठाया और छकौड़ी भागा। आगे-आगे पानी का गिलास लिए छकौड़ी नाई और पीछे-पीछे हाथ में जूता लिए ठाकुर बारिस्टर सिंह. . .'नइयटा, साला छत्तीसा. . . कमीना. . . हमने पचास बार हरामी के पिल्ले से कहा कि हमने क्रोध छोड़ दिया है, फिर भी साला. . .।'
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क्रोध छोड़ा नहीं जाता। क्रोध समझा जाता है। छोड़े कि ऐसे ही झंझट में पड़ोगे। क्रोध समझो। क्रोध के प्रति जागो। क्रोध को पहचानो। उसकी फैली हुई जड़ों को खोदो। और पहले से ही निर्णय मत लो कि क्रोध बुरा है। अगर निर्णय ले लिया तो जान न सकोगे। जब निर्णय ही ले लिया तो फिर जानोगे कैसे? जानने के लिए निर्णय-मुक्त मन चाहिए।

ओशो.
ज्योत से ज्योत जले(प्रवचन-२)

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