#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*बावें देखि न दाहिने, तन मन सन्मुख राखि ।*
*दादू निर्मल तत्त्व गह, सत्य शब्द यहु साखि ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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**सर्वंगी पतिव्रत का अंग ६७**
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जन रज्जब वपु बहु वरण, जलचर देखो जोय ।
नीर नेह अरु तिरण गति, सब की एक हि होय ॥९॥
जो जलचर हैं उनको देखो, उनके शरीर बहुत रंगों के होते हैं किन्तु जल से प्रेम और तिरने का प्रयत्न सब का एक ही होता है, वैसे ही सर्वंगी पतिव्रत वालों के शरीर किसी वर्ण के हों, उसका प्रभु से प्रेम और प्रभु की ओर गमन एक ही होता है ।
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देखो सुरही१ संत जन, तिन तनु२ रूप अनेक ।
पुनि पय३ प्यार असंख्य, के रज्जब दरशै एक ॥१०॥
देखो, गायों१ के शरीर के श्वेत, श्याम आदि अनेक रंग रूप होते हैं किन्तु दूध सब का एक ही रंग का होता है वैसे ही संतजनों के शरीर२ के रूप भी अनेक प्रकार के होते हैं किन्तु असंख्य संतों में प्रभु का प्रेम एक ही होता है, वैसे ही सर्वंगी पतिव्रत सबसे होता है ।
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षट् दर्शन३ पक्षैं सु पर, बहु वरणै बहु वीर१ ।
रज्जब अज्जब यहु मता२, सुमरिन एक शरीर ॥११॥
नाथ, जंगम, सेवड़े, बौद्ध, सन्यासी, शेष, इन ६ भेषधारियों३ के पक्ष में पड़ कर बहुत से भाई१ बहुत रंगों के भेष धारण करते हैं किन्तु फिर भी यह सिद्धान्त२ बड़ा अदभुत है कि उनके शरीरों में प्रभु का स्मरण एक ही रहता है, वैसे ही सर्वंगी पतिव्रत सब में एक ही होता है ।
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अधिपति१ लावै अरगजा, सकल सुगंधों सान ।
त्यों षट् दर्शन सौं खुशी, भेद भजन की मान ॥१२॥
केशर चन्दन कपूर आदि सभी सुगंधित द्रव्यों को मिला२कर अरगज बनाते हैं और उसे राजा१ लोग उसे सुगंधि के लिये शरीर पर लगाकर हर्षित होते हैं, वैसे ही नाथ, सेवड़े, बौद्ध, सन्यासी, शेष इन ६ भेषधारियों३ के भजन के रहस्य४ की युक्ति मानकर संतजन हर्षित ही होते हैं, उससे सर्वंगी पतिव्रत में बाधा नहीं पड़ती ।
(क्रमशः)
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