शनिवार, 2 मार्च 2019

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🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*सूता काल जगाइ कर, सब पैसैं मुख मांहि ।*
*दादू अचरज देखिया, कोई चेतै नांहि ॥* 
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com

कैसे मुक्त हों। अगर कोई इस हेतु उपाय बताए तो इसका अर्थ हुआ कि वो भी मुक्त नहीं है अगर उपाय बताये तो उसका अर्थ है उसे भी स्वीकार नहीं है कि मुक्त हैं। वो भी मान रहा है कि बंधन में पड़े हैं, जंजीरें काटनी हैं, हथौडिया लानी हैं, बेड़ियां खोलनी हैं, बड़ी कठिन मेहनत करनी है, जेलखाने की दीवालें गिरानी हैं, बड़ी साधना करनी है, बड़ा अभ्यास करना है।
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सांख्य का वचन था कि जिसने यह जान लिया, वह फिर छोटे बच्चों की तरह अभ्यास नहीं करता है। अभ्यास नहीं करता है ! और मनुष्य ने तो सारा योग ही अभ्यास बना रखा है. अभ्यास करो, साधन का अभ्यास करो !
सांख्य कहता है : सिद्ध हो ! साधन की जरूरत उसे है जो सिद्ध नहीं। यह स्वभाव है। जब ये कहा जाता है, मुक्ति की जरूरत ही नहीं है; मुक्त हैं,तब सिर्फ याद दिलाई जा रही है।
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एक आदमी ने शराब पी ली। वह अपने घर आया, लेकिन शराब के नशे में समझ न पाया कि अपना घर है। उसने दरवाजा खटखटाया। उसकी मां ने दरवाजा खोला। उसने अपनी मां से पूछा कि हे की मां, क्या तू मुझे बता सकती है कि मैं कौन हूं और मेरा घर कहां है? क्योंकि मैं घर भूल गया हूं? मैंने नशा कर लिया है।
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वह मां हंसने लगी। उसने कहा, 'पागल, किससे तू पता पूछ रहा है? यह तेरा घर है।’ उस शराब में बेहोश आदमी ने आंखें मीड़ कर फिर से देखा और उसने कहा कि नहीं, यह घर मेरा नहीं है। मेरा घर है जरूर, कहीं आसपास ही है, ज्यादा दूर भी नहीं है। मुझे मेरे घर पहुंचा दो।
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मुहल्ले के लोग इकट्ठे हो गये। लोग कहने लगे, 'तू पागल हुआ है? यह तेरा घर है ! यह तेरी मां खड़ी है !' वह रोने लगा। वह कहने लगा कि मुझे इस तरह उलझाओ मत। मेरी मां राह देखती होगी। रात हुई जा रही है, देर हुई जा रही है। वह बड़ी तड़पती होगी। मुझे मेरे घर पहुंचा दो।
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एक दूसरा शराबी शराब पी कर अपनी बैलगाड़ी लिये चला आता था। वह भी खड़ा हो कर सुन रहा था। उसने कहा, 'सुन भाई, आ जा बैठ जा बैलगाड़ी में। मैं तुझे पहुंचा दूंगा।’ लोग चिल्लाये कि पागल हो गया है, वह भी पीये बैठा है। वह तुझे ले जा रहा है, और तुझे ले जा रहा है तेरे घर से दूर ! 
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यह कहा जा रहा है, जहां हैं, जैसे हैं, ठीक वैसे ही होना है। जो अंतरतम है, इस क्षण भी मोक्ष में है। बाहर जो धूल—धवांस इकट्ठी हो गयी है, दर्पण पर जो धूल इकट्ठी हो गयी है, उसके कारण पहचान नहीं पा रहे। दर्पण धुंधला हो गया है। लेकिन कहीं कुछ और होना नहीं है। मुक्ति स्वभाव है।
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सपना देखना हो तो एक नया सपना देखने लगेगें। अगर सपना ही देखना है तो सपने का सिलसिला जारी रखेंगे। मगर वह भूल है, उसकी जिम्मेवारी और किसी की नहीं है। इस घोषणा को अंगीकार करें। इस घोषणा को स्वीकार करें। हालांकि मन कहेगा. मैं और मुक्त ! तुम्हें सदा निंदा सिखायी गई है—'तुम पापी, जन्म—जन्म के कर्मों से दबे, भ्रष्ट !'
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'मैं और मुक्त ! नहीं, नहीं। मुक्त तो भगवान महावीर होते, भगवान बुद्ध होते, भगवान श्रीकृष्ण होते। यह तो अवतारी पुरुषों की बात है। मैं और मुक्त ! मेरे तो पत्नी है, बच्चे हैं, दफ्तर है, दूकान है। मैं और मुक्त ! नहीं, नहीं !' यह दावा करने की तुम्हारी हिम्मत नहीं होती। कहते हैं, 'मेरी तो पत्नी है, मेरे बच्चे हैं, मेरा घर—द्वार है।' सपने में ही सपने का हिसाब बता रहे हैं, कि ये इतने पत्नी—बच्चे, यह सब कुछ मामला है, मैं कैसे मुक्त हो सकता हूं?
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यह सारा जो सपना है, सपना है। कौन किसका है? कौन किसी का हो सकता है? किसके हो सकते हैं? बस स्वयं अपने हैं, इसके अतिरिक्त सब मान्यता है, सब धारणा है। यह भी नहीं कहा जा रहा कि भाग जाएं घर छोड़ कर, क्योंकि कौन पत्नी, कौन बेटा ! वह जो भागता है, वह भी सपने में है। जाग जाएं, भागना कहां है ! होशपूर्वक देख लें। 
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संसार जैसा चलता है, चलता रहने दें। कुछ अड़चन नहीं है। किसी के जागने से संसार नहीं जाग जायेगा, लेकिन जाग कर एक अनूठे अनुभव को उपलब्ध हो जाएंगे। हंसेंगे भीतर ही भीतर कि जागे हुए लोग कैसे सोये—सोये चल रहे हैं ! जिनका स्वभाव मुक्ति है, वे कैसे बंधन में पड़े हैं !आश्चर्यचकित होवेंगे। बड़ी लीला चल रही है। जीवात्मा बंधन में है ! मुक्त स्वभाव जंजीरों में है ! जो हो नहीं सकता, वैसा होता मालूम पड़ रहा है।

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