सोमवार, 4 मार्च 2019

परिचय का अंग २५८/२६२

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ Tapasvi Ram Gopal
(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)
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संतप्रवर महर्षि श्रीदादूदयाल जी महाराज बता रहे हैं कि ::
परगट खेलैं पीव सौं, अमग अगोचर ठाँव ।
एक पलक का देखणा, जीवण-मरण का नाँव ॥२५९॥
“जो भक्त अगम्य, इन्द्रियातीत ब्रह्म के साथ प्रत्यक्ष क्रीड़ा करता है(अर्थात् ब्रह्मानन्द रस का अनुभव करता है) वह क्षणमात्र के दर्शन से मुक्त हो जाता है । भगवतगीता में है :: “मेरा वह परमधाम है जहाँ जाने के बाद कोई वापस नहीं लौटता ।”
श्रुति भी कहती है- “वह ज्ञानी फिर नहीं लौटता, फिर नहीं लौटता ।”
“जो ॐकार के चिन्तन द्वारा अनन्तव्यापक सब का कारण, इच्छारहित, शिवस्वरूप, नि:सङ्कल्प, निराकार, अत्युज्ज्वल, मृत्युरहित ब्रह्म को प्राप्त होता है, वही मैं हूँ ।”
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सूक्ष्म सौंज अर्चा बंदगी
आत्म माँही राम है, पूजा ताकी होइ ।
सेवा वन्दन आरती, साधु करै सब कोई ॥२६०॥
सब प्राणियों के हृदय में बुद्धि आदि इन्द्रियों तथा सूर्यादि ज्योतियों की भी अवभासक आत्मज्योति है । वह ब्रह्मज्योतियों का भी प्रकाशक एवं माया से परे कहा जाता है । वह परमात्मा बोधरूप, ज्ञातव्य तत्त्वज्ञान से प्राप्त होने वाला सबके हृदय में स्थित है । इस ज्योतिःस्वरूप ब्रह्म की बाह्यद्रव्यमयी पूजा बाह्य साधनों से नहीं हो सकती; किन्तु आभ्यन्तरभावमय साधनों से ही पूजा आरती वन्दना होती है । ब्रह्मवेत्ता सन्त बाह्य पूजा की अपेक्षा आन्तर पूजा को श्रेष्ठ बतलाते हैं ।
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परचै सेवा आरती, परचै भोग लगाय ।
दादू उस प्रसाद की, महिमा कही न जाय ॥२६१॥
मानस पूजा में ब्रह्म का साक्षात्कार ही ‘सेवा’ है । स्थूल सूक्ष्म पड़ात शरीर से अपनी आत्मा को उनसे भिन्न मानकर परब्रह्म परमात्मा को स्वसमर्पण कर देना ही ‘आरती’ है ।
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माँहि निरंजन देव है, माँहै सेवा होइ ।
माँहै उतारै आरती, दादू सेवक सोइ ॥२६२॥
मन-बुद्धि आदि इन्द्रियों को भगवत्स्वरूप में लीन करना ‘भोग’ है । मुक्ति ही ‘महाप्रसाद’ है । उसप्रसाद की महिमा वर्णनातीत है । निरञ्जन, निराकार ब्रह्म ही ‘देव’ है । जिसकी पूजा करते हैं ।
(क्रमशः)

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