मंगलवार, 5 मार्च 2019

परिचय का अंग २६३/२६५

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ Tapasvi Ram Gopal
(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)
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संतप्रवर महर्षि श्रीदादूदयाल जी महाराज बता रहे हैं कि ::
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दादू माँहै कीजे आरती, माँहै पूजा होइ ।
माँहै सद्गुरु सेविये, बूझै विरला कोइ ॥२६३॥
संत उतारैं आरती, तन-मन मंगलचार ।
दादू बलि-बलि वारणै, तुम पर सिरजनहार ॥२६४॥
दादू अविचल आरती, युग-युग देव अनंत ।
सदा अखंडित एक रस, सकल उतारैं संत ॥२६५॥
आभ्यन्तर पूजा करने वाला ही सच्चा ‘सेवक’ कहलाता है । भगवत्पूजा के बाद ब्रह्मरन्ध में स्थित गुरुचक्र में गुरु की पूजा भी भावमयी ही होती है । इस प्रकार आभ्यन्तर पूजा भावमयी होती है । ऐसी आभ्यन्तर भावमयी पूजा करने वाले सन्त महान् आनन्द स्वरूप हो जाते हैं । हे सृष्टिकर्ता ! मैं आपको बार-बार प्रणाम करता हूँ । अखण्ड, एकरस, अनन्त देव की ऐसी मानसी सेवा-पूजा युग-युग पर्यन्त सन्तजन ही किया करते हैं ।
हे देवाधिदेव ! आप के दर्शनों की उत्कण्ठा ब्रह्मा, शङ्कर आदि देवता भी करते रहते हैं । अत: कृपा कर मेरे सम्मुख प्रकट होकर दर्शन दो । हे परमेश्वर ! आपका स्वागत है, स्वागत है ! मैं आपके दर्शनों से कृतार्थ हो गया । आज मेरा यह जीवन भी सफल हो गया कि हे चिदानन्द । हे अव्यय ! आप मेरे सामने पधारे । अज्ञान से, प्रमाद से, साधन की कमी से जो कर्म अपर्ण रह गया है उसको आप सामने रहकर पूर्ण करो ।
ज्ञानावस्था में, पवित्र-अपवित्र स्थिति में, चलते-फिरते, बैठते-सोते अपने जपनीय मन्त्र का मन से स्मरण करता रहे । क्योंकि मानस सेवा पूजा में सर्वदेश सर्वकाल, सर्वस्थिति में मन्त्रजाप करते रहने पर भी कोई दोष नहीं है - ऐसा विद्वज्जनों का कथन है” ॥२६३-२६५॥
(क्रमशः)

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